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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
उसे खोल दिया । वह नगर द्वार से बाहर आया। कुछ ही दूर चला होगा, सहसा प्रकाश लुप्त गया और अन्धकार छा गया। अनाथपिण्डिक भीत हुआ, स्तब्ध हुआ और रोमांचित हुआ । उसके बढ़ते हुए चरण रुक गये । शिवक यक्ष ने अन्तरिक्ष में तिरोहित रह कर उसे प्रेरित करते हुए कहा - " गृहपति चल, शीघ्रता से चल । चलना ही तेरे लिए श्रेयस्कर है, लौटना नहीं ।" सहसा अन्धकार नष्ट हो गया । मार्ग प्रकाशित हो गया । भय, स्तब्धता व रोमांच जाता रहा । अनाथपिण्डिक आगे बढ़ा। फिर अन्धेरा छा गया, भय लगने लगा और बढ़ते हुए .. चरण रुक गये । आवाज आई, उससे साहस बढ़ा और अनाथपिण्डिक चल पड़ा। तीन बार ऐसे हुआ । अनाथपिण्डिक आगे बढ़ता गया और सीत-वन पहुँच गया । भगवान् बुद्ध प्रत्यूष काल की खुली हवा में उस समय टहल रहे थे । भगवान् ने अनाथपिण्डिक को दूर से ही आते हुए देखा तो चंक्रमण भूमि से उतर कर बिछे आसन पर बैठ गये और गृहपति को आह्वान किया - " आ सुदत्त ।" नामग्राह आमन्त्रण से अनाथपिण्डिक बहुत हर्षित हुआ । भगवान् के समीप पहुँचा और चरणों में गिर कर नमस्कार किया। कुशल प्रश्न के साथ उसने पूछा"भन्ते ! भगवान् को निद्रा तो सुख से आई ?"
बुद्ध ने उत्तर दिया- "निर्वाण प्राप्त ब्राह्मण सदा ही सुख से होता है ।" साथ ही उन्होंने अनाथपिण्डिक को आनुपूर्वी कथा कही । कालिमा-रहित शुद्ध वस्त्र जैसे रंग पकड़ लेता है, उसी प्रकार उसे भी उसी आसन पर बैठे विरज, विमल धर्म चक्षु उत्पन्न हुआ । धर्म-तत्व को जानकर, सन्देह-रहित होकर और शास्ता के शासन में स्वतन्त्र होकर उसने निवेदन किया – “आश्चर्य भन्ते ! आश्चर्य भन्ते ! जैसे उलटे को सीधा कर दे, आवृत्त को अनावृत्त कर दे, मार्ग विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक दिखा दे, जिससे सनेत्र देख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु संघ की भी । आज से मुझे अञ्जलिबद्ध शरणागत स्वीकार करें और भिक्षु संघ सहित कल के भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करें।" भगवान् ने मौन स्वीकृति प्रदान की । अनाथपिण्डिक अभिवादन कर घर चला आया ।
श्रावस्ती का निमन्त्रण
राजगृहक श्रेष्ठी ने अनाथपिण्डिक द्वारा भगवान् को निमंत्रित किये जाने की घटना सुनी, तो वह उसके पास आया और उसने कहा - "गृहपति ! तू अतिथि है; अतः मैं तुझे धन देता हूँ, इससे तू संघ - सहित भगवान् के भोजन की तैयारी कर ।”
rateffoss ने उसे अस्वीकार करते हुए कहा- "मेरे पास धन है; अतः आवश्यकता नहीं है ।"
अनाथपिण्डिक द्वारा बुद्ध को भोजन के लिए निमंत्रित किए जाने का उदन्त नैगम' ने भी सुना । उसने भी उसे धन देना चाहा, पर, उसने अनावश्यक समझ कर अस्वीकार कर दिया ।
revosक ने अपने ही व्यय से राजगृहक श्रेष्ठी के घर पर ही भोजन की तैयारी कराई । समय होने पर भगवान् बुद्ध को सूचना दी गई । भगवान् पूर्वाह्न के समय सुआच्छादित हो, पात्र - चीवर हाथ में ले, राजगृहक श्रेष्ठी के घर आये । बिछे आसन पर बैठे । carefulose ने अपने हाथों से भोजन परोसा । जब वे भोजन कर चुके तो गृहपति अनाथ
१. श्रेष्ठी या नगर- सेठ उस समय का एक अवैतनिक राजकीय-पद था । नैगम भी इसी प्रकार का एक पद था; जो सम्भवत: नगर-सेठ से उच्चतर गिना जाता था ।
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