________________
२६८
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड
भिक्षा से निवृत होकर आनन्द विहार में लौट आये । उन्होंने बुद्ध को सूचित किया"भन्ते ! देवदत्त आज संघ को तोड़ेगा। वह अलग ही सब-कर्म करेगा । जब मैं पिण्डचार के लिए राजगृह में गया, तो उसने मुझे यह सब कुछ कहा।"
बुद्ध ने उस समय उदान कहा--"साधु के साथ साधुता सुकर है । पापी के साथ साधुता दुष्कर है। पापी के साथ पाप सुकर है और आर्यों के साथ पाप दुष्कर है।" पांच सौ भिक्षुओं द्वारा शलाका-ग्रहण
वैशाली के पांच सौ वज्जिपुत्तक भिक्ष ओं ने उन्हीं दिनों प्रव्रज्या ग्रहण की थी। वे चर्या से पूर्णतः परिचित नहीं थे । उपोसथ के दिन देवदत्त ने उन्हें लक्षित कर कहा-"आवुसो! हमने श्रमण गौतम के समक्ष पाँच नियम प्रस्तुत किए थे। श्रमण गौतम ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। हम उसका वर्तन करेंगे। जिस आयुष्मान् को ये पाँच नियम रुचें, वे शलाका ग्रहण करें।" देवदत्त ने उसी समय सबकी ओर शलाकाएँ बढ़ाई। पाँच सौ भिक्ष ओं ने सोवा"यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का शासन है।" सबने ही वे शलाकाएँ ले ली । देवदत्त ने संघ को फटा कर पाँच सौ भिक्ष ओं को अपने साथ मिला लिया। सबके साथ चारिका करते हुए गयासीस की ओर प्रस्थान कर दिया।
सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने बुद्ध को इस घटना से सूचित किया। बुद्ध ने कहा"सारिपुत्त ! तुम लोगों को उन नये भिक्ष ओं पर तनिक दया नहीं आई ? आपत्ति में फंसने से पूर्व ही उन भिक्ष ओं को तुम बचाओ।" सारिपुत्त और मौग्गल्लान द्वारा प्रयत्न
सारिपुत्त और मौग्गल्लान तत्काल वहाँ से चले। गयासीस पहुँचे । दवदत्त बड़ी परिषद् के बीच धर्म-उपदेश कर रहा था। उसने उन्हें दूर से ही आते हुए देखा । अत्यन्त प्रसन्न-मुख हो, देवदत्त ने भिक्ष ओं से कहा-“मेरा धर्म कितना सु-अख्यात है। इससे आकृष्ट होकर श्रमण गौतम के प्रधान शिष्य सारिपुत्त और मौग्गल्लान भी मेरे पास आ रहे हैं । वे मेरे धर्म को मानते हैं।"
कोकालिक ने देवदत्त के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-“सारिपुत्त और मोग्गल्लान का विश्वास मत करो। वे पापेच्छ हैं।"
देवदत्त ने अपने विचारों को दुहराते हुए कहा-"नहीं, उनका स्वागत है। वे मेर धर्म पर विश्वास करते हैं।"
सारिपुत्त और मौग्गल्लान समीप पहुँचे, तो देवदत्त ने सारिपुत्त को अपने आधे आसन का निमन्त्रण दिया। किन्तु, वे दोनों दूसरे ही आसन लेकर एक ओर बैठ गये । देवदत्त ने भिक्षुओं को धर्मोपदेश दिया। बहुत रात बीतने पर भी भिक्षु सुनने में लीन थे। सारिपुत्त से देवदत्त ने कहा - "आत्रुस ! इस समय ये भिक्षु आलस्य व प्रमाद-रहित हैं। तुम इन्हें उपदेश दो । मेरी पीठ अगिया रही है; अतः मैं लेटूंगा।' सारिपुत्त भिक्षुओं को सम्बोधित करने लगे और देवदत्त चौपेती संघाटी बिछाकर दाहिनी करवट से लेट गया। स्मृति व संप्रजन्य-रहित हो जाने से उसे मुहूर्त भर में नींद आ गई। सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने अवसर का लाभ उठाया। सारिपुत्त ने आदेशना-प्रातिहार्य व अनुशासनीय-प्रतिहार्य और महा मौग्गल्लान ने ऋद्धि-प्रातिहार्य के साथ भिक्षु ओं को धर्मोपदेश दिया। सभी भिक्ष ओं को उस समय विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ।
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org