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________________ इतिहास और परम्परा काल-निर्णय ४६ लिए अपने लेख में जो-जो प्रसंग प्रस्तुत किए हैं, वे भी तो सबके सब आगमोक्त नहीं हैं। महाशिलाकंटक संग्राम और रथमुशल संग्राम के बाद 'वैशाली की विजय" का जो प्रकरण है, जिसमें कूलवालय भिक्षु वैशाली-प्राकार-मंग का निमित्त बनता है ; वह सारा वर्णन डा० जेकोबी ने भी स्वयं आवश्यक कथा से उद्धृत किया है । आगम और त्रिपिटक मौलिक शास्त्र हैं। इन दोनों में तो तात्कालिक विवरणों का कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं पाया जा रहा है। इतर ग्रन्थों में जैसे जैन परम्परा में अनेक विवरण उपलब्ध होते हैं, वैसे बौद्ध परम्परा के महावंश आदि ग्रन्थों में भी तो होते हैं। महावंश' में तो अशोक तक के राजाओं का काल-क्रम दिया जाता है। इतने मात्र का अर्थ यह थोड़े ही हो जाता है कि बुद्ध महावीर के पश्चात् निर्वाण-प्राप्त हुए थे। महावीर की निर्वाण-तिथि डा० जेकोबी ने महावीर का निर्वाण ई०पू० ४७७ और बुद्ध का निर्वाण ई० पू० ४८४ माना है । पर उन्होंने अपने सारे लेख में यह बतलाने का विशेष प्रयत्न नहीं किया कि ये ही तिथियां मानी जायें, ऐसी अनिवार्यता क्यों पैदा हुई ? केवल उन्होंने बताया है : 'जैनों की सर्वमान्य परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक महावीर की मृत्यु के २१५ वर्ष बाद हुआ था। परन्तु हेमचन्द्र के मत (परिशिष्ट पर्व, ८-३३६) के अनुसार यह राज्याभिषेक महावीर-निर्वाण १५५ वर्ष बाद हुआ।" इसी बात को उन्होंने भद्रेश्वर के कहावली नामक ग्रन्थ से पुष्ट किया है। परन्तु वस्तुस्थिति यह है-जैसे जेकोबी ने भी स्वीकार किया है, सर्वमान्य परम्परा के अनुसार तो चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक महावीर-निर्वाण के २१५ वर्ष बाद ही माना जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने उस प्रसंग को महावीर-निर्वाण के १५५ वर्ष बाद माना है। किन्तु यह बात इतिहास की कसौटी पर टिकने वाली नहीं है। विद्वानों ने इसे हेमचन्द्राचार्य की भूल ही माना है। इस विषय में सर्वाधिक पुष्ट धारणा यह है कि महावीर जिस दिन निर्वाण-प्राप्त होते हैं, उसी दिन उज्जैनी में पालक राजा राजगद्दी पर बैठता है। उसका या उसके वंश का ६० वर्ष तक राज्य चलता है । उसके बाद १५.५ वर्ष तक नन्दों का राज्य रहता है। तत्पश्चात् मौर्य-राज्य का प्रारम्भ होता है । अर्थात् महावीर १. श्रमण, वर्ष १३, अंक ७-८, पृ० ३४। २. महावंश, परिच्छेद ४, ५। ३. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ० १० । ४. एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षते गते । पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तो भवेन्नृपः ॥ --परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८, श्लोक ३३६ । ५. जं रयणि सिद्धिगओ अरहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणिमवंतिए, अभिसित्तो पालो राया ॥ पालगरण्णो सट्ठी, पण पणसयं वियाणि गंदाणम् । मुरियाणं सट्ठिसयं तीसा पुण पूसमित्ताणं । -तित्थोगाली पइन्नय ६२०.२१॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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