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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ में भरवा कर वह विहार में आई। शास्ता को नमस्कार कर उसने निवेदन किया “भन्ते ! आनन्द स्थविर के हाथ से मेरा आभूषण छू गया था; अतः मैं इसे नहीं पहन सकती । मैंने इसे आर्यों को समर्पित किया है। आर्यों के कल्प्य की वस्तुएं खरीदने के अभिप्राय से मैंने इसे बेच दिया। इतनी बड़ी राशि देकर अन्य कोई नहीं खरीद सकता था; अतः मैंने ही इसे खरीदा है । भिक्षुओं के चारों प्रत्ययों में से मैं किसे लाऊँ ? २५६ तथागत ने पूर्व-द्वार पर वास स्थान बनाने का सुझाव दिया। विशाखा ने उस सुझाव कोयान्वित किया | नौ करोड़ से उसने भूमि को खरीदा और पूर्वाराम में प्रासाद निर्माण काँ काम आरम्भ हो गया । शास्ता का प्रस्थान शास्ता स्वभावतः ही विशाखा के घर भिक्षा ग्रहण कर, नगर के दक्षिण-द्वार से निर्गमन कर, जेतवन में निवास करते थे और अनाथपिण्डिक के घर भिक्षा ग्रहण कर, नगर के पूर्वद्वार से निर्गमन कर, पूर्वाराम में वास करते थे । जब वे नगर के उत्तर-द्वार की ओर अभिमुख होते, जनता समझ लेती शास्ता चारिका के लिए प्रस्थान कर रहे हैं। विशाखा ने एक दिन शास्ता को उत्तर के द्वार की ओर प्रयाण करते हुए देखा। वह शीघ्र ही शास्ता के समीप आई और वन्दना कर व्यग्रता के साथ बोली- “ भन्ते ! आप चारिका के लिए जाना चाहते हैं ?" "हाँ, विशाखे !" विशाखा का हृदय मूँह की ओर आ गया । उसने रूँधे हुए गले से कहा - " भन्ते ! इतना धन देकर मैं तो आपके लिए विहार बनवा रही हूँ और आप गमन कर रहे हैं ? नहीं, ऐसा नहीं करें, पुनः लौट चलें ।" "यह गमन लौटने का नहीं है ।" "भन्ते ! तो फिर कृत-अकृत के ज्ञाता किसी एक भिक्षु को तो आप मेरे लिए लौटा कर जायें।" "विशाखे ! जिस भिक्षु को तू चाहे, उसका पात्र ले ले ।” विशाखा ने आनन्द स्थविर का पात्र ग्रहण करने की ठानी। दूसरे ही क्षण उसके मन में आया, आयुष्मान् महामौग्गल्लान ऋद्धिमान् हैं। उनके ऋद्धि-बल से विहार-निर्माण का कार्य शीघ्र ही समाप्त हो सकेगा । उसने उनका पात्र ग्रहण कर लिया । मौद्गल्यायन ने शास्ता की ओर देखा । शास्ता ने निर्देश दिया – “मोग्गल्लान ! पाँचसो भिक्षुओं के अपने पूरे परिवार के साथ लौट जाओ ।" मोग्गलान लौट आये। उनके ऋद्धि-बल से प्रासाद- निर्माण का कार्य बहुत सुगम हो गया । विशाखा के कर्मकर पच्चास-साठ योजन से वृक्ष या पाषाण लेकर उसी दिन लौट आते थे । गाड़ियों पर वृक्षों और पाषाणों को लादने में उन्हें कोई कठिनता नहीं होती थी और न गाड़ियों का बुरा ही टूटता था। दो मंजिल का विशाल प्रासाद बनकर शीघ्र ही तैयार हो गया । प्रत्येक मंजिल में पाँच-पाँचसी छोटे-बड़े कमरे थे । विहार के निर्माण में नौ करोड़ की राशि व्यय हुई । मास की अवधि समाप्त होने पर चारिका करते हुए शास्ता पुनः श्रावस्ती आये । विशाखा के प्रसाद निर्माण का कार्य तब तक समाप्त हो चुका था । जेतवन में ठहरने के अभिप्राय से शास्ता उस ओर चले। विशाखा ने जब यह सुना, तो वह शास्ता के पास आई और उन्हें संघ के साथ अपने यहाँ ही चातुर्मासिक प्रवास के लिए अनुनय किया; क्योंकि वह प्रासाद का उत्सव करना चाहती थी । बुद्ध ने उसे स्वीकार किया । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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