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________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २५५ करते हुए उसका स्तन-पान किया। विशाखा के नाम के साथ उस दिन से 'मृगार-माता' शब्द और संयुक्त हो गया। विशाखा के एक पुत्र का नाम भी मृगार रखा गया।' मगार श्रेष्ठी की ओर से मातृ-पद-प्रदान के उपलक्ष में विशाखा मगार-माता का अभिनन्दन किया गया। उस समारोह में बुद्ध को भी ससंघ आमन्त्रित किया गया । सोलह घड़े पुष्पसार से उसे नहलाया गया और मृगार श्रेष्ठी की ओर से एक लाख मूल्य का 'घन मत्थक प्रसाधन' आभूषण विशाखा को भेंट किया गया। विशाखा मगार-माता प्रतिदिन पाँचसौ भिक्षुओं को अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रित करती थी। बुद्ध का प्रतिदिन उपदेश सुनती थी और विहार में जाकर आगन्तुक, प्रतिष्ठासु, रोगी व शैक्ष भिक्षु-भिक्षुणियों की आवश्यकताओं की देख-भाल करती थी। पूर्वाराम-निर्माण उत्सव का दिन था। सभी व्यक्ति विशेष सज्जा के साथ तैयार होकर धर्म-श्रवण के लिए विहार की ओर जा रहे थे । विशाखा ने भी निमंत्रित स्थान पर भोजन किया, महालता प्रसाधन से अलंकृत हुई और जनता के साथ विहार में आई । महालता प्रसाधन तथा अन्य आभूषण उसने उतार कर दासी को दिये और कहा-“शास्ता के पास से लौटते समय मैं इन्हें पहनूंगी।" विशाखा ने धर्मोपदेश सुना और वन्दना कर लौट आई। दासी आभूषणों को वहीं भूल गई । परिषद् के चले जाने पर कुछ भी यदि वहाँ छूट जाता तो आनन्द स्थविर उसे संभालते । महालता प्रसाधन को उन्होंने सम्भाला और शास्ता को उसकी सूचना दी। सास्ता ने उसे एक ओर रख देने का परामर्श दिया। आनन्द ने उसे सीढ़ी के पास रख दिया। विशाखा सुप्रिया दासी के साथ आगन्तुक, गमिक व रोगी आदि की सार-सम्भाल के लिए विहार में घूमती रही। दूसरे द्वार से निकलकर विहार से बाहर आई । दासी से महालता प्रसाधनव अन्य आभूषण माँगे। दासी को अपनी गलती का भान हुआ। उसने अपनी स्वामिनी से वस्तुस्थिति निवेदित की । विशाखा ने कहा- “जा उन्हें अब ले आ। किन्तु, ध्यान रखना, यदि स्थविर आनन्द ने उठाकर कहीं रख दिया हो, तो न लाना। मैं उसे आर्य ही को प्रदान करती हूँ।" दासी विहार में आई । आनन्द स्थविर ने उसे देखा । आगमन का कारण पूछा। सुप्रिया ने अपना उद्देश्य स्पष्ट किया। आनन्द स्थविर ने कहा-"मैंने उसे उठाकर सीढ़ी के पास रख दिया है; तू उसे ले जा।" सुप्रिया यह कहती हुई लौट आई कि आपके हाथ से छू जाने पर ये आभूषण मेरी आयिका के पहनने के अयोग्य हो गये हैं। विशाखा ने जब यह सारा उदन्त सुना तो उसने उसे आर्यों को ही समर्पित कर दिया। किन्तु, आर्यों को उसकी सुरक्षा में दुविधा होगी। उससे कल्प्य वस्तुएं बनवाऊँगी; यह सोचकर दासी के द्वारा उसने उस प्रसाधन को मंगवा लिया। विशाखा ने उसे नहीं पहना । उसने उसे बेचने का संकल्प किया । स्वर्णकारों को बुलाकर उसका मूल्यपूछा गया। उन्होंने नौ करोड़ उसका मूल्य और एक लाख उसकी बनवाई बताई। उसने उस मूल्य पर आभूषण बेच देने को कहा । किन्तु, इतनी बड़ी राशि देकर उसे कोई नहीं खरीद सकता था ; अत: उसने उसे स्वयं खरीदा। नौ करोड़ और एक लाख मुद्राएं गाड़ों १. धम्मपद-अट्ठकथा, ४-८ के आधार पर। २. Dictionary of Pali Proper Names. Vol, II, P.902 ३. जातक (हिन्दी अनुवाद), भाग ४, पृ० १४४ । ४. धम्मपद-अट्ठकथा, पृ० १-१२८ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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