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आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
[खण्ड : १
stefani ने सात्विक गौरव की एक अनुभूति करते हुए पूछा - "श्रेष्ठिन् ! हमारी पुत्री में क्या और भी कोई दोष है ?" श्रेष्ठी ने नकारात्मक उत्तर दिया। कौटुम्बिकों ने निर्देशन की भाषा में कहा - "फिर निष्कारण ही हमारी पुत्री को आप घर से क्यों निकलवाते थे ?"
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विशाखा का स्वाभिमान चमक उठा। उसने कौटुम्बिकों की ओर इंगित कर सरोष कहा - " श्वसुर के कहने से मेरा जाना उचित न था । मेरे अपराध-शोधन का दायित्व पिताजी ने आप पर छोड़ा था। आपने मुझे दोष मुक्त कर दिया है; अतः अब मैं जा रही हूँ ।" उसने दास-दासियों को निर्देश दिया--" रथ तैयार करो ।”
मृगार श्रेष्ठी हतप्रभ सा कौटुम्बिकों की ओर देखने लगा। वह न उगल सका और न निगल सका । अधीर की तरह उसने विशाखा से कहा- " मैंने यह अनजान में कह डाला । तुम मुझे क्षमा करो। "
मृगार निर्ग्रन्थ-संघ से बुद्ध-संघ की ओर '
विशाखा ने क्षमा-प्रदान करते हुए अपनी एक शर्त प्रस्तुत की। उसने कहा- "मैं बुद्ध-धर्म में अत्यन्त अनुरक्त कुल की कन्या हूँ। मैं भिक्षु संघ की सेवा के बिना नहीं रह सकती । यदि मुझे भिक्षु संघ की सेवा का यथेच्छ अवसर दिया जाये तो मैं रहूँगी, अन्यथा इस घर में रहने के लिए कतई प्रस्तुत नहीं हूँ ।" मृगार श्रेष्ठी ने विशाखा की शर्त स्वीकार की और एक अपवाद संयोजित किया - "बुद्ध का स्वागत तुझे ही करना होगा। मैं उसमें उपस्थित होना नहीं चाहता ।"
विशाखा ने दूसरे ही दिन बुद्ध को ससंघ निमन्त्रित किया । बुद्ध जब उसके घर आये तो सारा घर भिक्षुओं से भर गया । विशाखा ने उनका हार्दिक स्वागत किया । नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने जब यह वृत्तान्त सुना, तो वे भी दौड़े आये और उन्होंने मृगार श्रेष्ठी के घर को चारों ओर से घेर लिया। विशाखा ने बुद्ध प्रभृति को दक्षिणोदक दिया और श्वसुर के पास शासन भेजा - सत्कार विधि सम्पन्न हो गई है, आप आकर भोजन परोसें श्रेष्ठी निर्ग्रन्थों के प्रभाव में था, अतः नहीं आया । भोजन समाप्त हो चुकने पर विशाखा ने फिर शासन भेजा, श्वसुर बुद्ध का धर्मोपदेश सुनें । अब न जाना अनुचित होगा, यह सोचकर मृगार श्रेष्ठी अपने कक्ष से चला । नग्न श्रमणों (निर्ग्रन्थों) ने आकर उसे रोका और कहा-" श्रमण गौतम का धर्मोपदेश कनात के बाहर रह कर सुनना ।' मृगार श्रेष्ठी ने वैसा ही किया। वह कनात के बाहर से उपदेश सुनने लगा । बुद्ध ने उसे सम्बोधित करते हुए कहा—“तू चाहे कनात के बाहर, दिवाल या पर्वत की आड़ में व चक्रवाल के अन्तिम छोर पर भी क्यों न बैठें, मैं बुद्ध हूँ; अतः तुझे उपदेश सुना सकता हूँ ।".
मृगार - माता
बुद्ध ने उपदेश प्रारम्भ किया। सुनहले, पके फलों से लदी आम्रवृक्ष की शाखा को झकझोरने पर जैसे फल गिरने लगते हैं, उसी प्रकार श्र ेष्ठी के पाप विनष्ट होने लगे और उपदेश समाप्त होते-होते वह स्रोतापत्ति-फल में प्रतिष्ठित हो गया । उसने तत्काल कनात को हटाया, आगे बढ़ा, पाँचों अंगों को भूतल तक नमाया और शास्ता की चरण-धूलि लेकर नमस्कार किया । शास्ता के सामने ही उसने विशाखा को सम्बोधित करते हुए कहा -- "अम्म ! आज से तू मेरी माता है ।" श्रेष्ठी ने तत्काल उसे माता के स्थान पर प्रतिष्ठित
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