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________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक उपासिकाएं ओर ध्यान न देकर ऐसे ही बैठे रहना अनुचित था ; अतः मशालों सहित दासियों के परिमैं वहाँ गई और मैंने प्रसव उपचार करवाया ।" वार कौटुम्बिकों ने निर्णय दिया – “आर्य ! हमारी पुत्री ने तुम्हारे घर दासियों के भी न करने का काम किया है; अतः इसमें आप क्या दोष देखते हैं ?" मृगार श्रेष्ठी ने आक्रोशपूर्वक कहा - " यह चाहे गुण भी हो, पर, जब यह यहाँ आ रही थी, तब इसके पिता ने इसे शिक्षा दी थी, घर की आग बाहर नहीं ले जानी चाहिए । क्या दोनों ओर पड़ोसियों के घर बिना आग के रह सकते हैं ?" २५३ कौटुम्बिकों ने विशाखा की ओर देखा तो उसने कहा- “मेरे पिता ने इस आग को लेकर नहीं कहा, अपितु इस अभिप्राय से कहा था, घर में सास आदि स्त्रियों की गुप्त बातें दास-दासियों को नहीं कहनी चाहिए। ये बातें धीरे-धीरे उग्र कलह का रूप ले लेती हैं ।" मृगार श्रेष्ठी की बातें ज्यों-ज्यों कटती गईं, त्यों-त्यों वह एक-एक कर अन्य बातें भी कहता गया । उसने कहा - " चाहे यह इसका दोष न भी हो, पर, इसके पिता ने कहा था, बाहर की आग घर में नहीं लानी चाहिए। घर में आग बुझ जाने पर भी क्या बाहर से आग लाये बिना काम चल सकता है ?" कटुकों के संकेत पर विशाखा ने हार्द स्पष्ट करते हुए कहा- - "मेरे पिता ने इस आग के बारे में नहीं कहा था, अपितु उनका अभिप्राय था, कर्मकरों की गल्तियाँ पारिवारिकों को नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि उससे कर्मकरों के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ती है।" मृगार श्रेष्ठी ने कहा, विशाखा के पिता ने और भी तो कहा था, उसका हार्द क्या था ? मैं उसे भी जानना चाहता हूँ । विशाखा ने उत्तर देना प्रारम्भ किया- 'देते हैं उन्हें ही देना चाहिए', नहीं 'देने वालों को नहीं देना चाहिए - यह मंगनी को लक्षित कर कहा गया था । 'देने वालों को और न देने वालों को भी देना चाहिए'; यह इस अभिप्राय से कहा था कि अमीर व गरीब अपने जाति-मित्रों को; चाहे वे प्रतिदान न भी कर सकें, देना ही चाहिए। 'सुख से बैठना चाहिए' का तात्पर्य था, सास श्वसुर को देख कर उठने के स्थान पर नहीं बैठना चाहिए । 'सुख से खाना चाहिए' का तात्पर्य था, सास- श्वसुर व स्वामी के भोजन करने से पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए | सबने भोजन किया या नहीं किया, यह जानकर ही स्वयं को भोजन करना चाहिए । 'सुख से लेटना चाहिए' का तात्पर्य था, सास, श्वसुर व पति की परिचर्या कर, उनके लेटने के बाद लेटना चाहिए । 'अग्नि की तरह परिचरण करना चाहिए' का तात्पर्य था, सास, श्वसुर व पति को अग्नि-पुंज की भाँति समझना चाहिए । 'घर के देवताओं को नमस्कार करना चाहिए' का तात्पर्य था, घर आये प्रव्रजितों को उत्तम खाद्य-भोज्य से सन्तर्पित कर ही भोजन करना चाहिए । टुम्बिकों ने तत्काल मृगार श्रेष्ठी से प्रश्न किया - " क्या आपको प्रव्रजितों को देख कर न देना ही उचित मालूम देता है ?” श्रेष्ठी कुछ भी उत्तर न दे सका । अधोमुख होकर बैठ गया। १ १. इसी प्रकार के पदार्थ - कथानक जैन परम्परा में भी अनेक प्रचलित हैं । 'मुनिवर अजहुँ सवार', 'पुत्र को चार शिक्षाएं' आदि प्रचलित कथानक तुलनात्मक दृष्टि से बहुत ही सरस एवं महत्वपूर्ण हैं । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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