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________________ २५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ मगार श्रेष्ठी असमंजस में पड़ गया। उसने सोचा, विशाखा महाकुल की कन्या है। इनके कथन मात्र से इसे निकाला नहीं जा सकता । न निकालने पर श्रमणों का कोप भी उससे अपरिचित नहीं था। उसने अत्यधिक विनम्रता के साथ उनसे क्षमा मांगी और उन्हें ससम्मान विदा किया । स्वयं बड़े आसन पर बैठा। सोने की कलछी से सोने की थाली में परोसा गया निर्जल मधुर क्षीर भोजन करने लगा। उसी समय एक स्थविर भिक्षु पिण्डचार करता हुआ श्रेष्ठी के गह-द्वार पर आया। विशाखा ने उसे देखा । श्वसुर को सूचित करना उसे उचित नहीं लगा ; अतः वह वहाँ से हट कर एक ओर इस प्रकार खड़ी हो गई, जिससे मृगार श्रेष्ठी भिक्षु को अच्छी तरह से देख सके । मूर्ख श्रेष्ठी स्थविर को देखता हुआ भी न देखते हुए की तरह नीचा मुंह कर पायस खाता रहा। विशाखा ने जब यह सारा दृश्य देखा, तो उससे नहीं रहा गया। स्थविर को लक्ष्य कर वह बोली-“भन्ते ! आगे जायें । मेरा श्वसुर बासी खा रहा है।" श्रेष्ठी का रोष निर्ग्रन्थों के प्रति विशाखा द्वारा हुए असभ्य व्यवहार से ही मृगार श्रेष्ठी बहुत रुष्ट था और जब उसने अपने प्रति 'बासी खा रहा है', यह सुना तो उसके कोप का ठिकाना नहीं रहा। उसने भोजन से हाथ खींच लिया और अपने अनुचरों को निर्देश दिया--"इस पायस को ले जाओ और इसे (विशाखा को) भी घर से निकालो। यह मुझे ऐसे मंगल घर में भी अशुचिभोजी बना रही है।" सभी अनुचर विशाखा के अधिकार में थे और उसके प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। उसे पकड़ने की बात तो दूर रही, उसके प्रति असभ्य शब्द का व्यवहार भी कोई नहीं कर सकता था। विशाखा श्वसुर को सम्बोधित करती हुई बोली-“तात ! मैं ऐसे नहीं निकल सकती । आप मुझे किसी पनिहारिन की तरह नहीं लाये हैं। माता-पिता की वर्तमानता में कन्याओं के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। मेरे पिता ने जिस दिन मुझे अपने घर से विदा किया था, आठ कौटुम्बिकों को मेरे अपराध के शोधन का दायित्व सौंपा था। उन्हें बुला कर पहले आप मेरे दोष का परिशोधन करें।" कौटुम्बिकों के बीच शिक्षाओं का स्पष्टीकरण मृगार श्रेष्ठी ने आठों कौटुंम्बिकों को बुलाया और सरोष वह सारी घटना सुनाई। कौटुम्बिकों ने विशाखा से सारी स्थिति की जानकारी चाही । विशाखा ने कहा- "मेरे श्वसुर अशुचि-भोजी बनना चाहते होंगे । मैंने तो इनके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया। एक पिण्डपातिक (माधुकरी वृत्ति वाले) स्थविर भिक्षु द्वार पर खड़े थे । श्रेष्ठी उनकी ओर ध्यान न देकर निर्जल पायस खाये जा रहे थे । इस दृश्य को लक्षित कर मैंने भिक्षु से कहा था ... भन्ते ! आप आगे जायें । मेरा श्वसुर इस शरीर में पुण्य नहीं करता। पूर्व पुण्य को ही खा रहा है ।' आप ही बतायें, मैंने इसमें क्या अशिष्ट व्यवहार किया ?" कौटुम्बिकों ने विशाखा को निर्दोष प्रमाणित करते हुए निर्णय दिया--"यह दोष नहीं है ; क्योंकि हमारी पुत्री आपकी पुण्यशालिता का यौक्तिक कारण बतलाती है।" श्रेष्ठी ने अन्यमनस्कता के साथ उस प्रसंग को टालते हुए विशाखा पर आरोप मढ़ा - "यह कन्या जिस दिन मेरे घर आई थी; उस दिन मेरे पुत्र का विचार न कर अपनी रुचि के स्थान पर चली गई। क्या यह इसके अनुरूप था ?" स्पष्टीकरण के अभिप्राय से कौटुम्बिकों ने जब विशाखा की ओर देखा तो वह बोली"मैं अपनी रुचि के स्थान पर नहीं गई । इसी घर में आजन्य घोड़ी के प्रसव-समय की ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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