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________________ इतिहास और परम्परा] प्रमुख उपासक-उपासिकाएं २५१ सौ गाड़ों में खेती का सामान था। पांच सौ उत्तम रथ थे, जिनमें प्र.येक में तीन-तीन दासियाँ थीं। पौन गावुत लम्बे और आठ यष्टि चौड़े समतल मैदान में जितने दुधारू पशु समा सकते थे, उतने पशु भी दहेज में दिये गये। जब वे सभी पशु श्रावस्ती की ओर प्रयाण करने लगे, तो धनंजय के साठ हजार वृषभ और साठ हजार गौएं भी अपने-अपने गोष्ठ को छोड़ कर उन पशुओं के पीछे-पीछे हो गई। धनंजय की अधीनता में चौदह ग्राम थे। विशाखा जब ससुराल जाने लगी तो सभी ग्रामों के नागरिक अत्यन्त खिन्न हुए। धनंजय ने घोषणा की--"कोई भी नागरिक विशाखा के साथ जाना चाहे तो जा सकता है ।" विशाखा बहुत लोकप्रिय थी। सारे ही ग्राम खाली हो गये और नागरिक विशाखा के साथ जाने लगे । श्रेष्ठी मृगार ने सोचा, इन सहस्रों लोगों को मैं भोजन कैसे करवा सकूँगा। उसने उन सबको प्रतिविसर्जित कर दिया। श्वसुरालय में पितृ-गृह से प्रस्थान कर बृहत् परिवार के साथ विशाखा श्रावस्ती के नगर-द्वार पर पहुंची। सहसा उसके मन में आया, आवृत्त यान में बैठ कर नगर-प्रवेश करूँ या अनावृत्त यान में खड़े होकर । यदि आवृत्त यान से प्रवेश करूँगी, तो जनता मेरे महालता-प्रसाधन की विशेषता से परिचित नहीं हो सकेगी। उसने अनावृत्त यान से ही नगर-प्रवेश किया। श्रावस्ती के नागरिकों ने विशाखा के सौन्दर्य और ऐश्वर्य को जी-भर कर देखा और भूरिभरि प्रशंसा की। 'बारात में धनंजय ने हमारा बहुत स्वागत किया', इस विचार से नागरिकों ने विशाखा को बहुत सारे उपहार भेंट किये । विशाखा ने उन्हें स्वीकार किया और एकदूसरे कुल में उन्हें वितरित कर दिया। जिस दिन विशाखा श्वसुरालय में आई, उस रात में एक आजन्य घोड़ी को गर्भ-वेदना हई । विशाखा अपने महल से चली। उसके साथ उसका दासी-परिवार भी हाथ में मशाल लिये हुए था। विशाखा ने घोड़ी को गर्म पानी से नहलाया, तेल से मालिश करवाई और प्रसव होने पर वह अपने वास-स्थान लौट आई। निर्ग्रन्थों से घृणा मृगार श्रेष्ठी ने एक साताह तक विवाहोत्सव मनाया । वह निर्ग्रन्थों का अनुयायी था ; अतः उसने इस उपलक्ष पर सातवें दिन बहुत सारे निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित किया, किन्तु, गौतम बुद्ध को आमंत्रित नहीं किया। निर्ग्रन्थों से उसका सारा घर भर गया । श्रेष्ठी ने विशाखा को शासन भेजा--"अपने घर अर्हत् आये हैं; अतः तुम आकर उन्हें वन्दना करो।" विशाखा स्रोतापन्न आर्य श्राविका थी। अर्हत् का नाम सुन कर वह बहुत हृष्ट-तुष्ट हुई । वह तत्काल तैयार हुई और वन्दना करने के लिए चली आई। उसने जब नग्न निर्ग्रन्थों को देखा, तो वह सहसा सिहर उठी। उसके मुंह से कुछ शब्द निकल ही पड़े---"क्या अर्हत् ऐसे ही होते हैं ? मेरे श्वसुर ने इन लज्जा-हीन श्रमणों के पास मुझे क्यों बुलाया ? धिक्, धिम् ।" वह उसी क्षण अपने महल में लौट आई। नग्न श्रमण विशाखा के उस व्यवहार से बहुत खिन्न हुए। उन्होंने मृगार श्रेष्ठी को कड़ा उलहाना देते हुए कहा--"श्रेष्ठिन् ! क्या तुझे दूसरी कन्या नहीं मिली ? श्रमण गौतम की इस महाकुलक्षणा श्राविका को अपने घर क्यों लाया ? यह तो जलती हुई गाडर है। शीघ्र ही इसे घर से निकालो।" ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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