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________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २६१ श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर परिषद् उठी। मंभसार-पुत्र कूणिक भी उठा । वन्दन-नमस्कार कर बोला-"भन्ते ! आपका निर्ग्रन्थ-प्रवचन सु-आख्यात है, सुप्रज्ञप्त है, सुभाषित है, सुविनीत है, सुभावित है, अनुत्तर है। आपने धर्म को कहते हुए उपशम को कहा, उपशम को कहते हुए विवेक को कहा, विवेक को कहते हुए विरमण को कहा, विरमण को कहते हुए पापक्रमों के अकरण को कहा । अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है, जो ऐसा धर्म कह सके। इससे अधिक की तो बात ही क्या ?"१ राजा जिस दिशा से आया था, उस दिशा से वापिस गया। जैन या बौद्ध? __ सामंत्रफल सुत्त और इस उववाई प्रकरण को तुलना की दृष्टि से देखा जाये तो उववाई-प्रकरण बहुत गहरा पड़ जाता है : सामंञफल सुत्त में अजातशत्रु के बुद्धानुयायी होने में केवल यही पंक्ति प्रमाणभूत है कि “आज से भगवान् मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक समझे।" उववाई-प्रकरण में प्रवृत्ति-वादुक पुरुष की नियुक्ति, सिंहासन से अभ्युत्थान, णमोत्थुणं से अभिवन्दन, भक्ति सूचक साक्षात्कार आदि उसके महावीरानुयायी होने के ज्वलन्त प्रमाण हैं। इन शब्दों से कि "जैसा धर्म आपने कहा, वैसा कोई भी श्रमण या ब्राह्मण कहने वाला नहीं है", उसकी निर्ग्रन्थ धर्म के प्रति पूर्ण आस्था व्यक्त होती है। लगता है, बुद्ध के प्रति अजातशत्रु का समर्पण मात्र औपचारिक था। मूलत: वह बुद्ध का अनुयायी बना हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। बुद्ध से जहां उसने एक ही बार साक्षात् किया, वहां महावीर से अनेक बार साक्षात् करता ही रहा है। यहां तक कि महावीर-निर्वाण के पश्चात् महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा की धर्म-परिषद् में भी वह उपस्थित होता है। डा० स्मिथ का कहना है- 'बौद्ध और जैन दोनों ही अजातशत्रु को अपना-अपना अनुयायी होने का दावा करते हैं, पर लगता है, जैनों का दावा अधिक आधार-युक्त है।" डा० राधामुकन्द मुखर्जी के अनुसार भी महावीर और बद्ध की वर्तमानता में तो अजातशत्रु महावीर का ही अनुयायी था। उन्होंने यह भी लिखा है-"जैसा प्रायः देखा १. णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणेवा जे एरिसं धम्म-माइक्खिन्त्तए । किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं? -औपपातिक सूत्र, सू० २५ २. ओपपातिक सूत्र, सू० ३४-३७ के आधार से। 3. Buddhist India, p. 88 ४. ठाणांग वृत्ति, स्था०४, उ० ३। ५. णायाधम्मकहाओ सू० १-५; परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४, श्लो० १५-५४ । €. Both buddhists and Jains claimed him as one of themselves. The Jian claim appears to be well-founded. -Oxford History of India, by V.A. Smith Second Edition, Oxford, 1923, p. 51. ७. हिन्दू सभ्यता, पृ० १९०-१। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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