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________________ २६२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ जाता है, जैन अजातशत्रु और उदायिभद्द दोनों को अच्छे चरित्र का बतलाते हैं; क्योंकि दोनों जैन धर्म को मानने वाले थे। यही कारण है कि बौद्ध-ग्रन्थों में उनके चरित्र पर कालिख पोती गई है।" अजातशत्रु के बुद्धानुयायी न होने में और भी अनेक निमित्त हैं-देवदत्त के साथ घनिष्ठता, जबकि देवदत्त बुद्ध का विद्रोही शिष्य था; वज्जियों से शत्रुता, जबकि वज्जी बुद्ध के अत्यन्त कृपा-पात्र थे; प्रसेनजित् से युद्ध, जबकि प्रसेनजित् बुद्ध का परम भक्त एवं अनुयायी था। बौद्ध-परम्परा उसे पितृ-हतक के रूप में देखती है, जबकि जैन परम्परा अपने कृत्य के प्रति अनुताप कर लेने पर उसे अपने पिता का विनीत कह देती है। ये समुल्लेख भी दोनों परम्पराओं के क्रमशः दूरत्व और सामीप्य के सूचक हैं । अजातशत्रु के प्रति बुद्ध के मन में अनादर का भाव था, वह इस बात से भी प्रतीत होता है कि श्रामण्य-फल की चर्चा के पश्चात् अजातशत्रु के चले जाने पर बुद्ध भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहते हैं- इस राजा का संस्कार अच्छा नहीं रहा। यह राजा अभागा है। यदि यह राजा अपने धर्म-राज पिता की हत्या न करता, तो आज इसे इसी आसन पर बैठेबैठे विरज, निर्मल, धर्म-चक्षु उत्पन्न हो जाता।"४ देवदत्त के प्रसंग में भी बुद्ध ने कहा"भिक्षुओ! मगधराज अजातशत्रु, जो भी पाप हैं, उनके मित्र हैं, उनसे प्रेम करते हैं और उनसे संसर्ग रखते हैं।"५ एक बार बुद्ध राज-प्रासाद में बिम्बिसार को धर्मोपदेश कर रहे थे। शिशु अजातशत्रु बिम्बिसार की गोद में था। बिम्बिसार का ध्यान बुद्ध के उपदेश में न लग कर, पुनः-पुनः अजातशत्रु के दुलार में लग रहा था। बुद्ध ने तब राजा का ध्यान अपनी ओर खींचा। एक कथा सुनाई, जिसका हार्द था; तुम इसके मोह में इतने बंधे हो, यही तुम्हारा घातक होगा।६ वज्जियों की विजय के लिये अजातशत्रु ने अपने मंत्री वस्सकार को बुद्ध के पास भेजा। विजय का रहस्य पाने के लिए सचमुच वह एक षड्यन्त्र ही था। अजातशत्रु बुद्ध का अनुयायी होता तो इस प्रकार का छद्म कैसे खेलता? ___ कहा जाता है, मौग्गल्लान के वधक ५०० निगण्ठों का वध अजातशत्रु ने करवाया। इससे उसकी बौद्ध धर्म के प्रति दृढ़ता व्यक्त होती है; पर, यह उल्लख अट्टकथा का है ; अतः एक किंवदन्ती मात्र से अधिक इसका कोई महत्त्व नहीं होता। १. हिन्दू सम्यग, पृ० २६४ । २. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त, पृ० ३२ । ३. उववाई सूत्र (हिन्दी अनुवाद), पृ० २६; सेनप्रश्न, तृतीय उल्लास, प्रश्न २३७ । ४. दीघ निकाय, सामञफल सुत्त, पृ० ३२ । ५. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, संघभेदक खन्धक,७। ६. जातक अट्ठकथा, थुस जातक, सं० ३३८ । ७. धम्मपद-अट्ठकथा, १०-७। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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