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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
रजत-मुद्राओं का 'प्रीतिदान' दिया। तब मंभसार-पुत्र कूणिक ने बलव्याप्त पुरुष (सेनाधिकारी) को बुलाया और कहा-"हस्तिरत्न को सजा कर तैयार करो। चतुरंगिनी सेना को तैयार करो। सुभद्रा आदि रानियों के लिए रथों को तैयार करो। चम्पा नगरी को बाहर और भीतर से स्वच्छ करो। गलियों और राजमार्गों को सजाओ। दर्शकों के लिए स्थानस्थान पर मंच तैयार करो । मैं भगवान महावीर की अभिवन्दना के लिए जाऊँगा।"
राजा के आदेशानसार सब तैयारियां हैं। राजा हस्तिरत्न हाथी पर सवार हआ। सुभद्रा प्रभृति रानियाँ रथों पर सवार हुई। इस प्रकार चतुरंगिनी सेना के महान् वैभव के साथ राजा भगवान् महावीर के दर्शनार्थ चला। चम्पा नगरी के मध्य-भाग से होता हुआ पूर्णभद्र चैत्य के समीप आया । श्रमण भगवान् महावीर के छत्र आदि तीर्थंकर-अतिशय दूर से देखे । वहीं उसने हस्तिरत्न छोड़ दिया। पांचो राजचिह्न छोड़ दिये । वहाँ से वह भगवान् महावीर के सम्मुख आया। पंच अभिगमन कर भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर मानसिकी, वाचिकी और कायिकी उपासना करने लगा। महावीर का उपदेश
भगवान् महावीर ने उपस्थित परिषद् को अर्धमागधी भाषा में देशना दी, जिसमें बताया-"लोक है, अलोक है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, पाश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा.. आदि हैं। प्राणातिपात, मृषावाद अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ... आदि हैं। प्राणातिपात-विरमणमृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण मैथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण, यावत् मिथ्यादर्शन शल्यविवेक हैं। सभी अस्तिभाव अस्ति में हैं. सभी नास्ति भाव नास्ति में हैं। सुचीर्ण कर्म का सुचीर्ण फल होता है, दुश्चीर्ण कर्म का दुश्चीर्ण फल होता है । जीव पुण्य-पाप का स्पर्श करते हैं। जीव जन्म-मरण करते हैं। पुण्य और पाप सफल हैं। धर्म दो प्रकार का है-आगार धर्म और अनगार धर्म । अनगार धर्म का तात्पर्य है-सर्वतः सर्वारमना मुण्ड होकर गृहावस्था से अगृहावस्था में चले जाना अर्थात् प्राणातिपात आदि से सर्वथा विरमण । अनगार धर्म बारह प्रकार का है—पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत ।१४
१. मूल प्रकरण में 'रजत' शब्द नहीं है, पर, परम्परा से ऐसा माना जाता है कि चक्रवर्ती
का प्रीतिदान साढ़े बारह कोटि स्वर्ण-मुद्राओं का होता है। वासुदेव का प्रीतिदान साढ़े बारह कोटि रजत-मुद्राओं का होता है तथा माण्डलिक राजाओं का प्रीतिदान साढ़े बारह लक्ष रजत-मुद्राओं का होता है।
-उववाई (हिन्दी अनुवाद), पृ० १३३ २. कूणिक राजा के वैभव, आडम्बर और अभियान-व्यवस्था के विस्तृत वर्णन के लिए
द्रष्टव्य-उववाई सुत्त सू० २८-३१ । ३. वन्दनार्थ जाने की यही वर्णन-शैली आगे चलकर बौद्धों ने भी अपनाई, ऐसा लगता
है। महायानी परम्परा के महावस्तु ग्रन्थ में बुद्ध के वन्दनार्थ जाते राजा बिम्बिसार का ठीक ऐसा ही वर्णन किया है। ( Mahavastu, Tr. by J. J.Jones, vol. III,
pp. 442-3.) ४. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य-उपासकदसांग सूत्र, अ०१।
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