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________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २८६ के मध्य होता हुआ भंभसार-पुत्र कूणिक की राजसभा में आया। जय-विजय शब्द से वर्धापना की और बोला--"देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं, जिनके दर्शन आपके लिए पथ्य हैं, जिनके नाम-गोत्र आदि के श्रवण से ही आप हृष्ट-तुष्ट होते हैं, वे श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरते हुए क्रमशः चम्पा नगरी के उपनगर में आये हैं और चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में आने वाले हैं । यह संवाद आपके लिए प्रिय हो।" भंभसार-पुत्र कूणिक उस प्रवृत्ति-निवेदक से यह संवाद सुनकर अत्यन्त हर्षित हुआ। उसके नेत्र और मुख विकसित हो गये । वह शीघ्रता से राज-सिंहासन छोड़ कर उठा, पादुकाएँ खोलीं। पांचों राज-चिह्न दूर किये। एक साटिक उत्तरासंग किया। अंजलिबद्ध होकर सातआठ कदम महावीर की दिशा में आगे गया। बाँये पैर को संकुचित किया। दाँये पर को संकोच कर धरती पर रखा। मस्तक को तीन बार धरणी-तल पर लगाया। फिर थोड़ा-सा ऊपर उठ कर हाथ जोड़े। अंजलि को मस्तक पर लगा कर णमोत्थुणं से अभिवादन करते हए बोला-'श्रमण भगवान् महावीर जो आदिकर हैं, तीर्थंकर हैं. यावत् सिद्ध गति के अभिलाषुक हैं। मेरे धर्मोपदेशक और धर्माचार्य हैं, उन्हें मेरा नमस्कार हो । यहाँ से मैं तत्रस्थ भगवान् का वन्दन करता हूँ। भगवान् वहीं से मुझे देखते हैं । २ ।। वन्दन-नमस्कार कर राजा पुनः सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने प्रवृत्ति-वादुक पुरुष को एक अष्ट सहस्र रजत मुद्राओं का 'प्रीतिदान' दिया और कहा-'भगवान् महावीर जब चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में पधारें, तब मुझे पुनः सूचना देना।" महावीर का चम्पा-आगमन सहन किरणों से सुशोभित सूर्य आकाश में उदित हुआ। प्रभात के उस मनोरम वातावरण में भगवान महावीर जहाँ चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे । यथारूप स्थान ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। चम्पा नगरी के श्रृंगाटकों और चतुष्कों पर सर्वत्र यही चर्चा थी-"श्रमण भगवान् महावीर यहां आये हैं, पर्णभद्र चैत्य में ठहरे हैं; उनके नाम-गोत्र के श्रवण से ही महाफल होता है। उनके साक्षात् दर्शन की तो बात ही क्या ? देवानुप्रियो ! चलो, हम सब भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करें। वह हमारे इस लोक और आगामी लोक के लिए हितकर और सुखकर होगा।" तदन्तर लोकों ने स्नान किया, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हुए तथा मालाएँ धारण की। कछ घोड़ों पर, कुछ हाथियों पर व कुछ शिविकाओं में आरूढ़ होकर तथा अनेक जनवृन्द पेदल ही भगवान् महावीर के दर्शनार्थ चले। प्रवृत्ति-वादुक पुरुष ने कूणिक को यह हर्ष-संवाद सुनाया। राजा ने साढ़े बारह लाख १. खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानत् और चामर। २. णमोऽत्थुणं समणस्स भगवो महावीरस्स आदिगरस्स तित्थगरस्स.."जाव संपाविउ कामस्स मम घम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। वंदामि णं भगवन्तं तथगयं रइहगए, पासइ मे (मे से) भगवं तत्थगए इहगयं तिकट्ठ वंदह णमंसइ । -उववाई सुत्त, सू० १२ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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