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इतिहास और परम्परा ]
काल- निर्णय
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स्तूपों का भी सम्मान किया, परन्तु जब राजा ने वक्कुल के स्तूप के दर्शन किये, तब उसने केवल एक ताम्र- सिक्का भेंट चढ़ाया, क्योंकि वक्कुल ने साधना मार्ग में थोड़े ही परीषह सहन किये थे और अपने बन्धु प्राणियों पर कुछ भी उपकार नहीं किया था । गौतम के अनन्य शिष्य आनन्द के स्तूप पर तो राजा की भेंट साठ लाख स्वर्ण मुद्रा की राशि में चढ़ाई गई ।” अशोक अपने जीवन में बौद्ध भिक्षु भी बना, भले ही वह थोड़े काल के लिए क्यों न हो, यह बहुत सारे विद्वानों की धारणा है । बहुत सम्भव तो यही है कि उक्त यात्रा उसने भिक्षु-पर्याय धारण करके ही की हो। उस समय वह राजा नहीं रहा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार 'संघ - उपेत' शब्द का अभिप्राय भी सार्थक सिद्ध हो जाता है ।
उक्त शिलालेखों में अशोक ने यह भी बताया है कि मैं 'संघ उपेत' होने से ढाई वर्ष पूर्व उपासक बना। 'संघ उपेत' होने का काल जब राज्याभिषेक के २० वर्ष पश्चात् का है, तो उपासक बनने का समय राज्याभिषेक के साढ़े सतरह वर्ष बाद होता है । वह काल ठीक तीसरी बौद्ध संगीति का है । सामान्यतया कहा जा सकता है कि अशोक राज्याभिषेक के ६ वर्ष पश्चात् बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था, परन्तु लगता यह है कि उसने संगीति-काल से ही अपने आपको परिपूर्ण उपासक-धर्म में दीक्षित माना है । तात्पर्य हुआ कि सम्राट् अशोक राज्याभिषेक के १७३ वर्ष बाद उपासक बना, २० वर्ष पश्चात् 'संघ उपेत' हुआ और २१ वर्षं पश्चात् उसने उक्त लघु शिलालेख खुदवाये ।
उक्त शिलालेखों की जो दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है, वह शिलालेख की अन्तिम पंक्ति 'व्युठेना सावने कटे २५६ सतविवासात' से सम्बन्धित है । इस पंक्ति के अर्थ में भी नाना मत मिलते हैं । व्युठेना संस्कृत व्युष्टेन और विवासा संस्कृत विवासात् का प्राकृत रूप है । व्युष्ट - यह शब्द विपूर्वक वस् धातु में क्त प्रत्यय लगने से सिद्ध होता है और विवास शब्द विपूर्वक वस् धातु में उन प्रत्यय लगने से बनता है । डॉ० ब्यूलर, डॉ० फ्लीट आदि कई विद्वानों ने व्युष्टेन का अर्थ – 'जो चला गया हो' अर्थात् 'बुद्ध' तथा विवासा का अर्थ 'बुद्ध का निर्वाण' ऐसा किया है ।' डॉ० फ्लीट ने यह भी माना है : "बुद्ध-निर्वाण के २५५ साल बाद सातवें या आठवें महीने में महाराज अशोक ने राजसिंहासन छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की होगी, तभी से वे संघ में आये होंगे। इस प्रकार से ८ मास १६ दिन पूरे होने पर २५६वीं रात को उन्होंने यह शिलालेख लिखवाया होगा। एक प्रश्न यह भी उठता है कि इस लेख में २५६वीं रात्रि का विशेष रूप से उल्लेख करने की क्या आवश्यकता थी । इसका उत्तर यह है- प्रवास की २५६ वीं रात या २५६ वें दिन को बुद्ध भगवान् के निर्वाण से २५६ साल पूरे होने की वर्षगाँठ मनाने के लिए अशोक ने लघु शिलालेख खुदवाये थे । इसलिए यह सिद्ध होता है कि इस शिलालेख में २५६ की संख्या इस बात की सूचक है कि बुद्ध भगवान् का निर्वाण अशोक के २५६ वर्ष पूर्व हुआ था ।"२ डॉ० फ्लीट एवं डॉ० ब्यूलर की उक्त मीमांसा बहुत शोधपूर्ण है,
१. Journal of Royal Asiatic Society, 1904, pp. 1-26 and Dr. Buhler, ' Second Notice, Indian Antiquary, 1893
2. Journal of Royal Asiatic Society, 1910, pp. 1301-8, 1911, pp. 10911112.
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