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________________ इतिहास और परम्परा] परिनिर्वाण ३३५ नहीं जा सकता । ऐसा न कभी हुआ है, न कभी होगा। दुःषमा-काल के प्रभाव से मेरे शासन में बाघा तो होगी ही।' गौतम को कैवल्य भगवान महावीर ने उसी दिन अपने प्रथम गणधार इन्द्रभूति गौतम को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र भेज दिया । अपने चिर अन्तेवासी शिष्य को दूर भेजने का कारण यह था कि मृत्यु के समय वह अधिक स्नेह-विह्वल न हो। इन्द्रभूति ने देवशर्मा को प्रतिबोध दिया। उन्हें भगवान् के परिनिर्वाण का संवाद मिला। इन्द्रभूति के श्रद्धाविभोर हृदय पर वज्राघात-सा लगा। अपने आप बोलने लगे-'भगवन् ! यह क्या किया ? इस अवसर पर मुझे दूर किया ! क्या मैं बालक की तरह आपका अंचल पकड़ कर आपको मोक्ष जाने से रोकता ? क्या मेरे स्नेह को आपने कृत्रिम माना ? मैं साथ हो जाता, तो क्या सिद्ध-शिला पर संकीर्णता हो जाती ? क्या मैं आपके लिए भार हो जाता ? मैं अब किसके चरण-कमलों में प्रणाम करूँगा? किससे अपने जगत् और मोक्षविषयक प्रश्न करूँगा? किसे मैं 'भदन्त' कहूँगा ? मुझे अब कौन ‘गौतम ! गौतम !' कहेगा?" इस भाव-विह्वलता में बहते-बहते इन्द्रभूति ने अपने-आपको सम्भाला। सोचने लगे"अरे ! यह मेरा कैसा मोह ? वीतरागों के स्नेह कैसा? यह सब मेरा एक-पाक्षिक मोहमात्र है । बस ! अब मैं इसे छोड़ता हूँ। मैं तो स्वयं एक हूं। न मैं किसी का हूँ। न मेरा यहाँ कुछ भी है। राग और द्वेष विकार-मात्र हैं। समता ही आत्मा का आलम्बन है।" इस प्रकार आत्म-रमण करते हुए इन्द्रभूति ने तत्काल कैवल्य प्राप्त किया।२ भगवान महावीर का जिस रात को परिनर्वािण हुआ, उस रात को नौ मल्लकी, नौ लिच्छवी; अठारह काशी-कोशल के गणराजा पौषध-व्रत में थे। १. जिनेश ! तव जन्मक्षं गन्ता भस्मकदुर्ग्रहः । बाधिष्यते स वर्षाणां, सहस्रो द्वेतु शासनम् ॥ तस्य संक्रामणं यावद्विलम्बस्व ततः प्रभो। भवत्प्रभाप्रभावेण स यथा विफलो भवेत् ॥ स्वाम्यूचे शक ! केनाऽपि नायुः सन्धीयते क्वचित् । दुःषमाभावतो बाधा, भाविनी मम शासने ॥ -कप्पसुत्त, कल्पार्थबोधिनी पत्र, १२१ । २. कप्पसुत्त, कल्पार्थबोधिनी, पत्र ११४। ३. जं रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, तं रयणि च णं नव मल्लई नव लिच्छई कासी-कोसलगा अट्ठारस-वि गणरायाणो अमावासाए पाराभोयं पोसहोववासं पट्ठवइंसु । -कप्पसुत्त, सू० १३२। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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