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__ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
मैत्री सहगत चित्त-मैत्री से समन्नागत (युक्त) चित्त । यष्टि-लम्बाई का माप। २० यष्टि =१ वृषभ, ८० वृषभ --१ गावुत, ४ गावुत=१
योजन। याम देवता-मनुष्यों के दो सौ वर्षों के बराबर एक अहोरात्र है। ऐसे तीस अहोरात्र का
एक मास और बारह मास का एक वर्ष। ऐसे दो हजार दिव्य वर्षों का उनका आयुष्य
होता है। योजन--दो मील। लोकषातु--ब्रह्माण्ड । वशवर्ती-परनिर्मित वशवर्ता देव-मवन के देव-पुत्र । वार्षिक शाटिका-वर्षा में वस्त्र समय पर न सूखने के कारण वर्षा तक के लिए लंगो के तौर
पर लिया जाने वाला वस्त्र । विज्ञानन्त्यायन-चार अरूप ब्रह्मलोक में से दूसरा। विवर्शना या विपश्यना-प्रज्ञा या सत्य का ज्ञान जो कि संस्कृत वस्तुओं की अनित्यता,
दुःखता या अनात्मता के बोध से होता है। विद्या (तीन)-पुवेनुवासानिस्सति त्राण (पूर्व जन्मों को जानने का ज्ञान), चुतूपपात आण
(मृत्यु तथा जन्म को जानने का ज्ञान), आसवक्खय बाण (चित्त मलों के क्षय का
ज्ञान)-ये तीन त्रिविद्या कहलाती हैं। विनय-वह शास्त्र, जिसमें भिक्षु-भिक्षुणियों के नियम का विशद रूप से संकलन किया
गया है। विमुक्ति-मुक्ति। विश्वकर्मा-तातिश निवासी वह देव, जो देवों में निर्माण कार्य करने वाला होता है और
समय-समय पर शक के आदेशानुसार वह बुद्ध की सेवा में निर्माण-कार्यार्थ उपस्थित __ होता है। विहार-भिक्षुओं का विश्राम-स्थान । वीर्य पारमिता-जिस प्रकार मृगराज सिंह बैठते, खड़े होते, चलते सदैव निरालस, उद्योगी
तथा दृढ़मनस्क होता है, उसी प्रकार सब योनियों में दृढ़ उद्योगी होकर वीर्य की सीमा
के अन्त ध्याकरण-भविष्य वाणी। व्यापाद-द्रोह। शिक्षापद-भिक्षु-नियम । शील-हिंसा आदि समग्र गहित कर्मों से पूर्णत: विरति । काय-शुद्धि। शील पारमिता-चमरी जिस प्रकार अपने जीवन की परवाह न करते हुए अपनी पूंछ की ही
सुरक्षा करती है। उसी प्रकार जीवन की भी परवाह न करते हुए शील की सुरक्षा के लिए ही प्रणबद्ध होना।
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