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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड: १
अजातशत्रु ने जब यह देखा कि राजा मर ही नहीं रहा है, तब उसने नापित को बुलवाया और आदेश दिया- "मेरे पिता राजा के पैरों को शस्त्र से चीर कर उन पर नून और तेल का लेप करो और खैर के अंगारों से उन्हें पकाओ ।" नापित ने वैसा ही किया और राजा मर गया ।
अनुताप
श्रेणिक की मृत्यु के बाद कूणिक का अनुतापित होना दोनों ही परम्पराएँ बताती हैं जैन परम्परा के अनुसार तो माता से पुत्र प्रेम की बात सुन कर पिता की मृत्यु से पूर्व ही कूणिक को अनुताप हो चुका था । राजा की आत्म-हत्या के पश्चात् तो वह परशु से छिन्न चम्पक- वृक्ष की तरह भूमितल पर गिर पड़ा। मुहूर्त्तान्तर से सचेत हुआ । फूट-फूट कर रोया और कहने लगा - "अहो ! मैं कितना अधन्य हूँ, कितना अपुण्य हूँ, कितना अकृतपुण्य हूँ, कितना दुष्कृत हूँ | मैंने अपने देव-तुल्य पिता को निगड़-बन्धन में डाला । मेरे ही निमित्त से श्रेणिक राजा कालगत हुआ ।" इस शोक से अभिभूत होकर वह कुछ ही समय पश्चात् राजगृह को छोड़ कर चम्पारानी में निवास करने लगा । उसे ही मगध की राजधानी बना दिया ।
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बौद्ध परम्परा के अनुसार जिस दिन बिम्बसार की मृत्यु हुई, उसी दिन अजातशत्रु के पुत्र उत्पन्न हुआ । संवादवाहकों ने पुत्र जन्म का लिखित संवाद अजातशत्रु के हाथ में दिया । पुत्र- प्रेम से राजा हर्ष-विभोर हो उठा । अस्थि और मज्जा तक पुत्र प्रेम परिणत हो गया । उसके मन में आया, जब मैंने जन्म लिया, तब राजा श्रेणिक को भी इतना ही तो प्रेम हुआ होगा । तत्क्षण उसने कर्मकरों को कहा - "मेरे पिता को बन्धन- मुक्त करो ।" संवादवाहकों ने बिम्बिसार की मृत्यु का पत्र भी राजा के हाथों में दे संवाद पढ़ते ही वह चीख उठा और दौड़ कर माता के पास आया । माता से पूछा - "मेरे प्रति मेरे पिता का स्नेह था ?" माता ने वह अंगुली घूसने की बात अजातशत्रु को बताई । तब वह और भी शोक-विह्वल हो उठा और अपने किये पर अनुताप करने लगा ।
दिया । पिता की मृत्यु का
जीवन-प्रसंग : एक समीक्षा
दोहद, अंगुली - ब्रण, कारावास आदि घटना-प्रसंगों के बाह्य निमित्त कुछ भिन्न हैं, पर, घटना-प्रसंग हार्द की दृष्टि से दोनों परम्पराओं में समान हैं। एक ही कथा वस्तु का दो परम्पराओं में इतना-सा भेद अस्वाभाविक नहीं है । प्रत्येक बड़ी घटना अपने वर्तमान में मी नाना रूपों में प्रचलित हो जाया करती है । निरयावलिया आगम का रचना-काल विक्रम संवत् के पूर्व का माना जाता है' तथा अट्ठकथाओं का रचना-काल विक्रम संवत् की पाँचवीं शताब्दी का है । २ यह भी एक भिन्नता का कारण है। जिस-जिस परम्परा में अनुश्रुतियों
१. पं० दलसुख मालवणिया, आगम युग का जैन दर्शन, पृ० २६, सन्मति ज्ञानपीठ,
आगरा, १६६६
२. दृष्टव्य, भिक्षुधर्म रक्षित, आचार्य बुद्धघोष, पृ० ७, महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, १६५६ ।
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