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________________ इतिहास और परम्परा] अनुयायी राजा २६७ से कथा-वस्तु का जो भी रूपक आ रहा था, वह शताब्दिों बाद व शताब्दिों के अन्तर से लिखा गया। वघ-सम्बन्धी समुल्लेखों से यह तो अवश्य व्यक्त होता है कि बौद्ध परम्परा अजातशत्रु की क्रूरता सुस्पष्ट कर देना चाहती है ; जबकि जैन परम्परा उसे मध्यम स्थिति से रखना चाहती है । बौद्ध परम्परा में पैरों को चिरवाने, उनमें नमक भरवाने और अग्नि से तपाने का उल्लेख बहुत ही अमानवीय-सा लगता है। जैन परम्परा में श्रेणिक को केवल कारावास मिलता है। भूखों मारने आदि की यातनाएँ वहाँ नहीं हैं। मृत्यु भी उसकी 'आत्म-हत्या' के रूप में होती है, जबकि बौद्ध परम्परा के अनुसार अजातशत्रु स्वयं पितृवधक होता है । इस सबका हेतु भी यही हो सकता है कि कूणिक जैन परम्परा का अनुयायी-विशेष था। मातृ-परिचय दोनों परम्पराओं में कूणिक की माता के नाम भिन्न-भिन्न हैं। जातक के अनुसार कोशल देवी कोशल देश के राजा महाकोशल की पुत्री अर्थात् कोशल-नरेश प्रसेनजित् की बहिन थी। विवाह-प्रसंग पर काशी देश का एक ग्राम उसे दहेज में दिया गया था। बिम्बिसार के वध से प्रसेनजित् ने वह ग्राम वापस ले लिया। लड़ाई हुई, एक बार हारने के पश्चात् प्रसेनजित् की विजय हुई। भानजा समझ कर उसने अजातशत्रु को जीवित छोड़ा, सन्धि की तथा अपनी पुत्री वजिरा का उसके साथ विवाह किया। वही ग्राम पुन: उसे कन्या-दान में दे दिया। संयुत्त निकाय के इस वर्णन में अजातशत्रु को प्रसेनजित् का भानजा भी कहा है और 'वैदेही पुत्त' भी कहा है। इन दोनों नामों में कोई संगति नहीं है । बुद्ध घोष ने यहाँ 'वैदेही' का अर्थ 'विदेह देश की राज-कन्या' न कर 'पण्डिता' किया है। यथार्थता यह है कि जैन परम्परा में कथित चेलणा वैशाली गणतन्त्र के प्रमुख चेटक की कन्या होने से "वैदेही' थी। प्रसेनजित् की बहिन कोशल देवी अजातशत्रु की कोई एक विमाता हो सकती है । तिब्बती-परम्परा तथा अमितायुान सूत्र के अनुसार अजातशत्रु की माता का नाम 'वैदेही वासवी' था और उसका वैदेही होने का कारण भी यही माना गया है कि वह विदेह देश की राज्य-कन्या थी। 'विदेह' शब्द का प्रयोग तथारूप से अन्यत्र भी बहुलता से मिलता है । भगवान् महावीर को विदेह विदेहदिन्ने विवेहजच्चे कहा गया है। महावीर स्वयं विदेह १. Jataka, Ed. By Fausboll, vol. III, p. 121. २. जातक-अट्ठकथा, सं० २४६, २८३ । ३. संयुत्त निकाय, ३-२-४। ४. वेदेहिपुत्तो ति वेदेहीति पण्डिताधिवचनं एतं, पण्डितिथिया पुत्तो ति अत्थो। -संयुत्त निकाय, अट्ठकथा, १, १२० । ५. Rockhill : Life of Buddha p. 63. ६. S. B. E., vol. XLIX, p. 166. ७. Rockhill: Liafo Buddha p.63 ८. कप्पसुत्त, ११०। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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