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________________ इतिहास और परम्परा] विरोधी शिष्य २६३ होता है ; वैसे ही देवदत्त के लिए यह प्रसंग हुआ है।" देव द्वारा सूचना आयुष्मान् महामौद्न का उपस्थाक ककुध नामक कोलिय-पुत्र उन्हीं दिनों मृत्यु प्राप्त कर मनोमय (देव) लोक में उत्पन्न हुआ। उसका शरीर मगध के गाँव के दो-तीन खेतों के बराबर बड़ा था । पर, वह शरीर न उसके लिए पीड़ा-कारक था और न दूसरों के लिए। ककुध देवपुत्र आयुष्मान् मोग्गल्लान के पास आया । अभिवादन कर एक ओर खड़ा हो गया और उन्हें सूचित किया-"भन्ते ! आदत्तचित देवदत्त के मन में इच्छा उत्पन्न हुई है-'मैं भिक्षु संघ का नेतृत्व ग्रहण करूँ।' इस विचार के उभरते ही उसकी ऋद्धि नष्ट हो गई है।” ककुध देवपुत्र यह कहकर तत्काल तिरोहित हो गया। मोग्गल्लान द्वारा पुष्टि मोग्गल्लान बुद्ध के पास आये और ककुध देवपुत्र द्वारा कथित वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया। बुद्ध ने मौग्गल्लान से पूछा--"क्या तू ने भी योग-बल से इस वृत्त को उसी प्रकार जाना है ?" विनम्रता से मौग्गल्लान ने कहा "भन्ते ! जो कुछ ककुध देवपुत्र ने कहा है, सब वैसे ही है ; अन्यथा नहीं।" बुद्ध महती परिषद् में धर्म-उपदेश कर रहे थे । राजा अजातशत्र भी उसमें उपस्थित था । देवदत्त अपने आसन से उठा । उत्तरासंग किया और करबद्ध हो, बुद्ध से बोला-"भन्ते ! भगवान् अब जीर्ण, अध्वगत और वयः-अनुप्राप्त हैं; अतः निश्चिन्त होकर इस जन्म के सुखविहार के साथ विहरें । भिक्षु-संघ मुझे सौंप दें। इसे मैं ग्रहण करूँगा।" "बस, देवदत्त ! तुझे भिक्षु-संघ का ग्रहण न रुचे । देवदत्त ने तीन बार अपने कथन को दुहराया। बुद्ध ने उसका प्रतिवाद करते हुए दृढ़ता से कहा --- 'देव त्त ! सारिपुत्र और मौग्गल्लान को भी मैं भिक्षु संघ नहीं देता, फिर तेरे जैसे खखार (श्लेष्म) को तो देने की बात ही क्या ?" देवदत्त मन-ही-मन उबलने लगा और कहने लगा--"इस महती परिषद् में, जिसमें कि राजा भी उपस्थित है, भगवान् ने खखार कहकर मुझे अपमानित किया है और सारिपुत्र और मोग्गल्लान को बढ़ाया है।" वह कुपित हुआ और असन्तुष्ट होकर भगवान् को अभिवादन व प्रदक्षिणा कर चला गया। देवदत्त का यह पहला द्रोह था। प्रकाशनीय कर्म " बुद्ध ने संघ को आमन्त्रित किया और कहा-“भिक्षुओ ! संघ राजगृह में देवदत्त का प्रकाशनीय कर्म करे---- 'देवदत्त पहले अन्य प्रकृति का था और अब अन्य प्रकृति का है । देवदत्त काय व वचन से अब जो कुछ भी करे, बुद्ध, धर्म और संघ उसका उत्तरदायी नहीं है । देवदत्त ही उत्तरदायी है।" "इस प्रकाशनीय कर्म के लिए चतुर व समर्थ भिक्षु संघ को ज्ञप्ति करे, अनुश्रावण करे और उपरोक्त वाक्य को दुहराता हुआ कहे-"संघ इस अभिमत से सहमत है, अत: मौन है । मैं इसकी धारणा करता हूँ।" बुद्ध ने सारिपुत्र को सम्बोधित करते हुए कहा-"सारिपुत्त! तू राजगृह में देवदत्त का प्रकाशन कर।" ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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