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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :१
प्रकरण है, जो प्रस्तुत ग्रन्थ के गोशालक अध्याय में समुद्धृत हुआ । देवदत्त का मुख्य विवरण विनय पिटक के चुल्लवग्ग (संघभेदक खन्धक प्रकरण) में है, जो सारांशतः यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। दोनों ही प्रकरण तत्कालीन विविध धार्मिक मान्यताओं, राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों और साम्प्रदायिक मनोभावों के पूरे-पूरे परिचायक भी हैं । घटना-वृत्त दोनों ही प्रकरणों का नितान्त विकट और कटुक है। कुल मिलाकर गवेषक दोनों ही प्रकरणों से बहुत कुछ पा सकता है।
देवदत्त अजातशत्रु पर प्रभाव
भगवान् बुद्ध अनूपिया में चारिका करते हुए कौशाम्बी आये। घोषिताराम में ठहरे । भिक्ष देवदत्त एकान्त में बैठा था। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-"मैं किसको प्रसादित करूँ. जिसके प्रसन्न होने पर मुझे बड़ा लाभ व सत्कार प्राप्त हो। सहसा उसे अजातशत्रु व याद आई। उसके विषय में उसने सोचा-अजातशत्रु कुमार तरुण है। उसका भविष्य उत्त है। मुझे उसे ही प्रसादित करना चाहिए। ऐसा होने पर मुझे बड़ा लाभ व सत्कार प्राप्त
होगा।"
देवदत्त शयनासन संभाल कर और पात्र-चीवर आदि लेकर राजगृह की ओर चल पड़ा । वहाँ पहुँच कर उसने अपने रूप का अन्तर्धान किया। एक बालक बन, कटि पर तागड़ी, पहनी और सीधा अजातशत्रु की गोद में प्रादुर्भूत हुआ। इस, अनालोचित दृश्य को देखकर अजातशत्रु भीत, शंकित और त्रस्त हुआ। देवदत्त ने बालक के रूप में अजातशत्रु से कहा''कुमार ! तू मुझसे भय खाता है ?''
"हाँ, भय खाता हूँ। तुम कौन हो ?" "मैं देवदत्त हूँ।" "भन्ते ! यदि आप आर्य देवदत्त हैं, तो अपने स्वरूप में प्रकट हों।"
देवदत्त ने कुमार का रूप छोड़ा, संघाटी, पात्र-चीवर धारण किये और अजातशत्र कुमार के सामने अपने मूल रूप में प्रकट हुआ। अजातशत्रु देवदत्त के इस दिव्य चमत्कार से बहुत प्रभावित हुआ। वह प्रतिदिन प्रातः और सायं पाँच सौ रथों के साथ देवदस के उपस्थान के लिए जाने लगा और भोजन के लिए प्रतिदिन पाँच सौ स्थाली-पाक भेजने लगा।
____ लाभ, सत्कार और श्लाघा से अभिभूत देवदत्त के मन में अभिलाषा जागृत हुई-“मैं भिक्षु-संघ का नेतृत्व करूँ।" इस विचार मात्र से ही उसका योग-बल नष्ट हो गया।
भगवान् बुद्ध कौशाम्बी से चारिका करते हुए राजगृह आये । कलन्दक निवाप के वेणुवन में ठहरे । बहुत सारे भिक्षु बुद्ध के पास आये । अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। उन्होंने बुद्ध से कुमार अजातशत्रु द्वारा विहित देवदत्त के सम्मान के विषय में कहा । बुद्ध ने उत्तर में कहा-“भिक्षुओ ! देवदत्त के लाभ, सत्कार और इलाधा की स्पृहा मत करो। जब तक कुमार अजातशत्र देवदत्त के उपस्थान के लिए आयेगा, तब तक देवदत्त की कुशल धर्मों में हानि ही होगी; वृद्धि नहीं । यह उसके आत्म-वध और पराभव के लिए हुआ है । केला, बाँस और नरकट का फल तथा अश्वतरी का गर्भ जैसे उनके आत्म-वध और पराभव के
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