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विरोधी शिष्य
महावीर और बुद्ध के योग्य पारिपाश्विकों ने अपने उत्सर्ग, अपनी सेवा, अपने समर्पण और अपनी समुज्ज्वल साधना से जैसे नया इतिहास गढ़ा है, वैसे ही कुछ एक विरोधी शिष्यों ने विरोध और संघर्ष का ज्वलन्त इतिहास भी गढ़ा है। वे विरोधी शिष्य थे-गोशालक और देवदत्त । गोशालक का सम्बन्ध महावीर से था और देवदत्त का बुद्ध से। दोनों ही दोनों के दीक्षित शिष्य थे। दोनों ही के पास लब्धि-बल था, पर, अन्त में दोनों ही निस्तेज हो जाते हैं । गोशालक ने अपने को जिन कहा, महावीर को अजिन कहा । देवदत्त ने महती परिषद् के बीच बुद्ध से कहा--"अब आप वृद्ध हो चले हैं, जीर्ण हो चले हैं. भिक्षु-संघ को मुझे सौंप दें। मैं उसका शास्ता बनंगा।" महावीर ने गोशालक की अजिनता व्यक्त की और बद्ध ने देवदत्त को खरार कहा । परिणामतः दोनों ने ही अपने-अपने गुरु को मारने का प्रयत्न किया। महावीर और बुद्ध दोनों के ही शिष्य-परिवार में गोशालक और देवदत्त की हरकतों से चिन्ता परिव्याप्त हुई। उस अवसर पर महावीर ने अपनी दीर्घ जीविता की घोषणा कर आनन्द, सीह आदि शिष्यों को सान्त्वना दी और बताया-"जिन निरुपक्रमी और अबध्य होते हैं।" बुद्ध ने भी अपने शिष्यों से कहा----"भिक्षुओ ! बुद्ध निरुपक्रमी होते हैं । वे अपने मरण-काल में ही मरते हैं। कोई उन्हें मारने में क्षम नहीं होता।"
दोनों घटना-प्रसंगों में आपात संयोग यह भी है कि गोशालक भी महावीर के आनन्द भिक्षु को अपना सन्देशवाहक बनाते हैं और देवदत्त भी बुद्ध के आनन्द भिक्षु को। यह भी बहुत समान है कि महावीर और बुद्ध दोनों ही लगभग एक ही प्रकार से वस्तुस्थिति का प्रकाशन करते हैं।
दोनों ही विरोधी शिष्य कुछ समय के लिए बहुत प्रभावशाली रहे । गोशालक का अनुयायी-समुदाय बहुत बड़ा था। देवदत्त के पीछे अजातशत्रु का बलथा । वह उनके व्यक्तिगत प्रभाव में था।
उल्लेखनीय बात यह है, जीवन के अन्तिम क्षणों में दोनों ही अपने-अपने शास्ता के प्रति श्रद्धाशील होते हैं । दोनों की मृत्यु भी रक्तज और पित्तज निमित्त से होती है।
देवदत्त मरकर अवीचि नरक में उत्पन्न हुआ । एक लाख कल्प वह वहाँ रह कर अटिस्सर नामक प्रत्येक बुद्ध होगा व निर्वाण प्राप्त करेगा। गोशालक मरकर अच्युत कल्प स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ से वे पुनः-पुनः नरकादि गतियों में परिभ्रमण करेंगे। अन्त में कैवल्य प्राप्त कर निर्वाणगामी होंगे।
महावीर और बुद्ध के विरोधी वातायन में देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के भेद से असमानता तो स्वाभाविक और मूल-भूत है ही। उन स्वाभाविक असमानताओं में इतनी समानताओं का होना अवश्य विलक्षण है । गोशालक का विवरण भगवती सूत्र का एक प्रमुख
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