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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
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राजगृह में प्रविष्ट हुए । सारिपुत्त ने उन्हें देखा। वह उनकी शान्त और गम्भीर मुखाकृति बहुत प्रभावित हुआ। उसके मन में आया, लोक में जो अर्हत् या अर्हत्-मार्ग पर आरूढ़ हैं, उनमें से यह भिक्षु भी एक ही हो सकता है । क्यों न मैं इसे पूछें कि आप किस गुरु के पास प्रव्रजित हुए है, शास्ता कौन है और किस धर्म को मानते हैं । दूसरे ही क्षण सारिपुत्त के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, यह भिक्षु इस समय भिक्षा के लिए घूम रहा है; अतः प्रश्न पूछने का उचित अवसर नहीं 1 क्यों न मैं इसके पीछे-पीछे चलूं और इसके आश्रम में पहुँच कर ही मैं अपना समाधान करूँ ।
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आयुष्मान् अश्वजित् राजगृह से भिक्षा लेकर आश्रम लौट आये । सारिपुत्त भी उनके पीछे-पीछे ही पहुँच गया । अश्वजित् से कुशल प्रश्न किया और एक ओर खड़ा हो गया । उसने अश्वजित की प्रशंसा करते हुए कहा - " आवुस ! तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं । तुम्हारी छवि परिशुद्ध तथा उज्ज्वल है । तुम किसको गुरु करके प्रव्रजित हुए हो, तुम्हारा शास्ता कौन है और तुम किसका धर्म मानते हो ?"
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अश्वजित् ने कहा – “ शाक्य कुल में उत्पन्न शाक्यपुत्र महाश्रमण हैं । उन्हें ही गुरु मानकर मैं प्रव्रजित हुआ हूँ । वे ही भगवान् मेरे शास्ता हैं और उनका धर्म ही मैं मानता हूँ ।" सारिपुत्त ने जिज्ञासा करते हुए कहा - "तुम्हारे शास्ता किस सिद्धान्त को मानने वाले हैं ।"
अश्वजित् ने विनम्रभाव से कहा - "मैं इस धर्म में सद्यः ही प्रविष्ट हुआ हूँ । नव प्रव्रजित होने से मैं तुम्हें विस्तार से नहीं बतला सकता, किन्तु, संक्षेप में अवश्य बतला सकता हूँ ।"
सारिपुत्त ने उत्सुकता व्यक्त करते हुए कहा- "आवुस ! अल्प या अधिक ; कुछ भी मुझे बतलाओ । संक्षेप में ही बतलाओ, अधिक विस्तार से मुझे प्रयोजन नहीं है । "
आयुष्मान् अश्वजित् ने तब धर्म-प्रयाय बतलाते हुए दुःख, दुःख समुदय, दु:ख निरोध एवं दु:ख निरोध- गामिनी प्रतिपदा का संक्षेप में प्रतिपादन किया और कहा - "महाश्रमण का यह वाद सिद्धान्त है ।" श्रवणमात्र से ही सारिपुत्त को विमल धर्म चक्षु उत्पन्न हुआ । विहित प्रतिज्ञा के अनुसार मोग्गलान को सूचना देने के लिए आया। मौग्गल्लान ने उसे दूर से ही आते हुए देखा। वह उसकी शान्त, संयमित व गम्भीर गति से बहुत प्रभावित हुआ । सहसा उसके मुंह से निकला – “क्या तुझे अमृत की प्राप्ति हो गई है ?"
सारिपुत्त ने स्वीकृति सूचक उत्तर दिया। मोग्गल्लान का अगला प्रश्न था, तू ने वह कहां से पाया ? सारिपुत्त ने सारा वृत्त बतलाया । मौग्गल्लान को विशेष प्रसन्नता हुई और उसे भी धर्म चक्षु उत्पन्न हुआ। दोनों ने तत्काल निश्चय किया, हम भगवान् के पास चलें । ही हमारे शास्ता है । हमारे आश्रम में रहने वाले ढाई सौ परिव्राजकों को भी सूचित कर दें। वे भी जैसा चाहें, कर सकें ।
ढाई सौ परिव्राजकों ने सारिपुत्त और मोग्गल्लान के निश्चय का स्वागत किया और उन्होंने भी शास्ता की शरण ग्रहण करने की अभिलाषा व्यक्त की ।
सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने संजय परिव्राजक को अपने सामूहिक निश्चय से सूचित किया। उन्हें यह उचित प्रतीत नहीं हुआ । उन्होंने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा --
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