SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २०६ ''आवुसो ! तुम वहाँ मत जाओ। हम तीनों मिलकर इस परिव्राजक संघ का नेतृत्व करेंगे।" सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने संजय के कथन का प्रतिवाद किया और अपने अभिमत को दोतीन बार दुहराया। संजय परिव्राजक ने अपनी बात को उसी प्रकार दुहराया। उसके मुंह से वहीं गर्म खून निकलने लगा। सारिपुत्त और मौग्गल्लान ने संजय का साथ छोड़ दिया और अपने पूरे परिवार के साथ वेणुवन पहुँच गये । बुद्ध ने उन्हें दूर से ही आते हुए देखा तो भिक्षओं को सम्बोधित करते हुए कहा-"कोलित (मोग्गल्लान), उपतिष्य (सारिपुत्त), ये दोनों मित्र प्रधान शिष्य-युगल होंगे; भद्र-युगल होंगे।" दोनों ही परिव्राजकों ने अपने शिष्य-परिवार के साथ अभिवादन किया और उपसम्पदा ग्रहण कर विहरण करने लगे।' महाकाच्चायन महाकाच्चायन का जन्म उज्जैन में पुरोहित के घर में हुआ। गोत्र के कारण वे काच्चायन की अभिधा से प्रसिद्ध हुए। बड़े होकर उन्होंने तीनों वेद पढ़े। पिता की मृत्यु के बाद उन्हें पुरोहित का पद प्राप्त हुआ। राजा चण्डप्रद्योत ने एक बार अपने अमात्यों को एकत्रित कर आदेश दिया-लोक में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं। कोई वहां जाकर उन्हें यहाँ अवश्य लाये । अमात्यों ने निवेदन किया-“देव ! आचार्य कात्यायन ही इस कार्य के लिए समर्थ हैं। आप उन्हें ही दायित्व सौंपें।" राजा ने उन्हें बुलाया और अपनी इच्छा व्यक्त की। आचार्य कात्यायन ने एक शर्त प्रस्तुत करते हुए कहा-'यदि मुझे प्रव्रज्या की अनुज्ञा मिले, तो मैं जाऊँगा।" राजा चन्डप्रद्योत ने उसे स्वीकार करते हुए कहा-'जैसे भी हो, राज्य में तथागत का आगमन आवश्यक है।" आचार्य काच्चायन ने यह दायित्व अपने पर ले लिया। प्रस्थान की तैयारी करते हुए उन्होंने सोचा, इस निमंत्रण के लिए जनसमूह की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अपने साथ सात व्यक्तियों को लिया। बुद्ध के पास पहुँचे। बुद्ध ने उन्हें धर्मोपदेश दिया। सभी व्यक्ति प्रतिसंवित् हो अर्हत्-पद को प्राप्त हुए । शास्ता ने 'भिक्षुओं ! आओ' कह हाथ फैलाया । उस समय वे सभी मुण्डित मस्तक, ऋद्धि-प्राप्त, पात्र-चीवर धारण किये, सौ वर्ष के स्थविर के सदृश हो गये। प्रव्रजित होने के बाद स्थविर कात्यायन मौन होकर नहीं बैठे । उन्होंने शास्ता को उज्जैन चलने के लिए निमंत्रण दिया। शास्ता ने उनकी बात को ध्यान पूर्वक सुना और कहा-"बुद्ध एक कारण से न जाने योग्य स्थान में नहीं जाते; अतः भिक्षु ! तू ही जा। तेरे जाने पर ही राजा प्रसन्न होगा।" स्थविर कात्यायन ने सोचा, बुद्धों की दो बातें नहीं हुआ करतीं। उन्होंने तथागत को वन्दना की और अपने सातों साथियों को साथ ले उज्जैन की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में तेलप्पनाली नामक कस्बे में भिक्षाचार करने गये। वहाँ दो लड़कियाँ रहती थीं। एक लड़की दरिद्र घर में पैदा हुई थी। माता-पिता की मृत्यु के बाद एक दाई ने उसे पाला-पोषा। उसका लावण्य निरुपम था और केश बहुत प्रलम्ब थे। दूसरी लड़की उसी कस्बे में ऐश्वर्य-सम्पन्न एक सेठ के घर पैदा हुई थी, किन्तु, केश-हीना थी। उसने दरिद्र लड़की के पास सन्देश भेजा, १. विनय पिटक, महावग्ग, महासन्धक, १-१-१८ के आधार से। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy