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२१० आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन
[खण्ड :१ मैं तुम्हें सौ या हजार दूंगी, यदि तू अपने केश मुझे दे दे। दरिद्र-कन्या ने उसके प्रस्ताव को ठकरा दिया।
स्थविर कात्यायन को दरिद्र लड़की ने अपने ग्राम में भिक्षा के लिए घूमते हुए देखा। स्थविर खाली पात्र ही लौट रहे थे। उसने सोचा, मेरे पास धन होता तो ऐसा नहीं होने देती। उसे धनिक कन्या का प्रस्ताव याद आया। उसने अपने केश उसे बेच कर प्राप्त धन से स्थविर को भिक्षा देने का निश्चय किया। उसने दाई को तत्काल भेजा और साथियो-सहित स्थविर को अपने घर बुला लिया। दाई से अपने केशों को कटवा कर कहा-"अम्मा ! इन केशों को अमुक सेठ की कन्या को दे आ। जो आय होगी, उससे मैं आर्यों को भिक्षा
दूंगी।"
केश-कर्तन से दाई को आघात पहुँचा। फिर भी उसने हाथ से आँसू पोंछे, धीरज बांधा और केश लेकर उस सेठ की कन्या के पास गई। सारपूर्ण उत्तम वस्तु आयाचित ही यदि पास आती है तो उसका वह आदर नहीं होता। इन केशों के साथ भी ऐसा ही हुआ। सेठकन्या ने सहसा सोचा, मैं बहुत सारा धन देकर इन केशों को खरीदना चाहती थी, पर, मुझे ये प्राप्त न हो सके। पर, अब तो ये कटे हुए हैं; अतः उचित मूल्य ही देना होगा। उसने दाई से कहा-"जीवित केश आठ कार्षापण के होते हैं।" और उसने केश लेकर आठ कार्षापण उसके हाथ में थमा दिये। दाई ने वे कार्षापण लाकर कन्या को दिये। कन्या ने एक-एक कार्षापण का एक-एक भिक्षान्न तयार कर स्थविरों को प्रदान किया। स्थविर कात्यायन ने दरिद्र-कन्या के विचारों को जान लिया और दाई से पूछा-"कन्या कहाँ है ?"
दाई ने उत्तर दिया-"आर्य ! वह तो घर में है।" स्थविर ने पुनः कहा-“उसे बुलाओ।"
दरिद्र-कन्या स्थविर द्वारा अज्ञात भावों को जान लेने पर उनसे बहुत प्रभावित हुई। उसके मन में बहुत श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसने वहाँ आकर स्थविर को अभिवन्दना की। सुन्दर खेत (सुपात्र) में दिया भिक्षान्न उसी जन्म में फल देता है। इसलिए स्थविरों को वन्दना करते समय ही कन्या के केश पूर्ववत् हो गये। स्थविरों ने उस भिक्षान्न को ग्रहण किया और कन्या के देखते-देखते आकाश में उड़ कर कांचन-वन में जा उतरे। माली ने राजा चण्डप्रद्योत को सूचित किया--"देव ! आर्य पुरोहित कात्यायन प्रवजित हो, उद्यान में आये हैं।"
राजा आनन्दित हुआ और उद्यान में पहुँचा। स्थविरों के भोजन कर चुकने पर राजा ने पाँच अंगों से उन्हें वन्दना की और पूछा-'भन्ते ! भगवान् कहाँ हैं ?"
स्थविर कात्यायन ने उत्तर दिया-"महाराज ! शास्ता स्वयं नहीं आये। उन्होंने मुझे भेजा है।"
राजा का अगला प्रश्न था-'आज आपने भिक्षा कहाँ पाई ?"
स्थविर ने दरिद्र-कन्या के दुष्कर कार्य का सारा वृतांत सुनाया। राजा उससे बहुत प्रभावित हआ। उसने स्थविरों के रहने का प्रबन्ध किया और भोजन का निमंत्रण देकर लौट आया। दरिद्र-कन्या को बुलाया और उसे अग्रमहिषी के पद पर स्थापित किया। स्थविर का बहुत सत्कार करने लगा।
दरिद्र-कन्या के पुत्र हुआ। मातामह के नाम पर उसका गोपालकुमार नामकरण किया गया और वह रानी गोपाल-माता के नाम से विश्रुत हुई। उसने राजा से कह कर कांचन-वन
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