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इतिहास और परम्परा भिक्षु-संघ और उसका विस्तार
२११ में स्थविरों के लिए विहार बनवाया। स्थविरों ने उज्जैन नगर को अनुरक्त बनाया और शास्ता के पास चले गये।
दस सहस्त्र नागरिक, नन्द व राहुल
महाराज शुद्धोदन को यह ज्ञात हुआ कि मेरा पुत्र छः वर्ष तक दुष्कर तपश्चर्या करने के अनन्तर, परम अभिसम्बोधि को प्राप्त कर व धर्मचक्र का प्रवर्तन कर इस समय वेणुवन में विहार कर रहा है । उस समय उसने अपने अमात्य से कहा-“एक हजार व्यक्तियों के साथ राजगृह जाकर बुद्ध से कहो-'आपके पिता महाराज शुद्धोदन आपके दर्शन करना चाहते हैं। उसे अपने साथ ले आओ।"
अमात्य ने राजा का आदेश शिरोधार्य किया और हजार व्यक्तियों के साथ साठ योजन मार्ग को लांघकर राजगृह के वेणुवन पहुँचा। बुद्ध उस समय चार प्रकार की परिषद् (भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाओं) के बीच धर्मोपदेश कर रहे थे । वह विहार के अन्दर गया। राजा का सन्देश बुद्ध को निवेदन न कर, एक ओर खड़ा हो, वह उपदेश-श्रवण में लीन हो गया। वहाँ खड़े-खड़े हजार व्यक्तियों सहित अमात्य ने अर्हत्-पद को प्राप्त किया
और प्रव्रज्या की याचना की। "भिक्षुओं ! आओ", कहते हुए बुद्ध ने हाथ फैलाया। चामत्का. रिक रूप में वे सभी पात्र-चीवर धारण किये शतवर्षीय वृद्ध स्थविर हो गये। अर्हत्-पद प्राप्त होने पर मध्यस्थ भाव को प्राप्त हो जाते हैं। अतः उसने राजा का भेजा हआ संदेश-पत्र बद्ध को नहीं दिया।
अमात्य लौटकर भी नहीं आया और समाचार भी नहीं पहुंचाया तो राजा ने उसी प्रकार हजार व्यक्तियों के समूह के साथ दूसरे अमात्य को भेजा। वह भी अपने अनुचरों के साथ अर्हत्त्व पाकर मौन हो गया। वापस नहीं लौटा। राजा ने हजार-हजार पुरुषों के साथ नौ अमात्यों को भेजा। सभी अपना-अपना आत्मोन्नति का कार्य कर मौन हो. वहीं विहरने लगे। कोई भी लौटकर नहीं आया। राजा विचार में पड़ गया। उसने सोचा, इतने व्यक्तियों का स्नेह मेरे साथ होते हुए भी, किसी ने आकर मुझे संवाद नहीं सुनाया। अब
। बात कौन मानेगा? चिन्तामग्न होकर उसने अपने राजमण्डल को निहारा। कालउदाई पर उसकी दृष्टि पड़ी। कालउदाई राजा का आन्तरिक, अतिविश्वस्त व सर्वार्थसाधक अमात्य था। वह बोधिसत्त्व के साथ एक ही दिन पैदा हुआ था। दोनों बाल-मित्र
। राजा ने कालउदाई को सम्बोधन करते हुये कहा-"तात! मैं अपने पुत्र को देखना चाहता हूं। नौ हजार पुरुषों को भेजा, एक ने भी आकर सचित नहीं किया। शरीर का कोई भरोसा नहीं है। मैं अपने जीवन में उसे देख लेना चाहता हूं। तू मुझे अपने पुत्र को दिखा सकेगा?"
कालउदाई ने कहा- "देव ! ऐसा कर सकूँगा, किन्तु, मुझे प्रव्रज्या की अनुज्ञा मिले।"
राजा ने व्यग्रता के साथ कहा-"तात ! तू प्रवजित या अप्रव्रजित, मेरे पुत्र को यहां लाकर मुझे दिखा।"
राजा का आदेश शिरोधार्य कर कालउदाई वहां से चल पड़ा। राजगृह पहुंचा। .
१. अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा, १.१.१० ।
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