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२१२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ परिषद् के अन्त में खड़े होकर शास्ता का धर्मोपदेश सुना और सपरिवार अर्हत्फल को प्राप्त हो गया।
शास्ता ने बुद्ध होकर पहला वर्षावास ऋषिपत्तन में व्यतीत किया। उरुवेला आये और तीन मास ठहरे। तीनों जटिल बन्धुओं को मार्ग पर ला, एक सहस्र भिक्षुओं के परिवार से पौष मास की पूर्णिमा को राजगृह आये। वहां दो मास ठहरे। वाराणसी से चले उन्हें पांच मास व्यतीत हो गये थे । उदाई स्थविर को वहां आये सात-आठ दिन बीत चुके थे। फाल्गुन, प्रणिमा को वह सोचने लगा-"हेमन्त समाप्त हो गया है । वसन्त आ गया है। कृषकों ने शस्य आदि काटकर रास्ता छोड़ दिया है। पृथ्वी हरित तृण से आच्छादित है, वन-खण्ड फलों से लदे हुये हैं। मार्ग गमनागमन के योग्य हो गये हैं। बुद्ध के लिए अपनी जाति-संग्रह का यह उचित समय है।" शास्ता के पास आकर उसने प्रार्थना की-"भन्ते ! इस समय न अधिक शीत है और न अधिक गर्मी । अन्न की भी कठिनता नहीं है। हरियाली से भूमि हरित है। कुल-नगर की ओर प्रस्थान का उचित समय है।"
बुद्ध ने कहा-"उदाई ! क्या तू मधुर स्वर से यात्रा का अनुमोदन कर रहा है ?"
उदाई ने निवेदन किया-“भन्ते ! आपके पिता महाराज शुद्धोदन आपके दर्शन चाहते हैं। आप जाति वालों का संग्रह करें।"
बुद्ध ने निर्णय देते हुये कहा-“अच्छा, मैं जातिवालों का संग्रह करूंगा। तुम भिक्षुसंघ से कहो कि यात्रा की तैयारी करे।"
बुद्ध ने जब वहां से प्रस्थान किया तो उनके साथ अंग-मगध के दस हजार कुलपुत्र व दस हजार ही कपिलवस्तु के कुलपुत्र थे । वे सभी बीस हजार क्षीणास्रव (अर्हत् ) थे। प्रतिदिन एक-एक योजन चलते हुये धीमी गति से साठ दिन में कपिलवस्तु पहुंचे। बुद्ध के आगमन का संवाद सुन सभी शाक्य एकत्रित हुए और उन्होंने न्यग्रोध उद्यान को उनके निवास स्थान के लिए चुना। उसे बहुत ही सजाया व संवारा । उनकी अगवानी के लिये गंध, पुष्प आदि हाथों
लिए, सब तरह के अलंकृत कुमार व कुमारियों को भेजा । उनके बाद राजकुमार व राजकुमारियों ने उनकी अगवानी की। पूजा-सत्कार करते हुए उन्हें न्यग्रोधाराम में लाये । बुद्ध बीस हजार अर्हतों के परिवार से स्थापित बुद्धासन पर बैठे।
दूसरे दिन भिक्षुओं के साथ बुद्ध ने भिक्षा के लिये कपिलवस्तु में प्रवेश किया। वहां न किसी ने उन्हें भोजन के लिये निमंत्रित ही किया और न किसी ने पात्र ही ग्रहण किया । बद्ध ने इन्द्रकील पर खड़े होकर चिन्तन किया--"पूर्व के बुद्धों ने कुल-नगर में भिक्षाटन कैसे किया था ! क्या बीच के घरों को छोड़कर केवल बड़े-बड़े आदमियों के ही घर गये या एक ओर से सबके घर?" उन्होंने जाना, बीच-बीच में घर छोड़कर किसी भी बुद्ध ने भिक्षाटन नहीं किया। मेरा भी यही वंश है; अतः यही कुल-धर्म ग्रहण करना चाहिये । भविष्य से मेरे श्रावक (शिष्य) मेरा ही अनुसरण करते हुये भिक्षाचार व्रत पूरा करेंगे। उन्होंने एक छोर से भिक्षाचार आरम्भ किया।
शहर में सर्वत्र यह विश्रुत हो गया कि आर्य सिद्धार्थ राजकुमार भिक्षाचार कर रहे हैं। नागरिक उत्सुकतावश अपने-अपने प्रासादों की खिड़कियां खोल उस दृश्य को देखने लगे।
१. जैन परम्परा में भी भिक्षु की समुदान भिक्षा का लगभग यही क्रम है। देखें, दसवेयालियम्, अगस्त्यसिंह चूर्णि, अ० ५, उ० २, गा० २५।
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