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________________ इतिहास और परम्परा भिक्षु संघ और उसका विस्तार राहुल-माता देवी (यशोधरा) ने भी खिड़की खोल उन्हें देखा। उसके मन में आया, एक दिन आर्यपुत्र इसी नगर में बाडम्बर से स्वर्ण-शिविका में आरूढ़ होकर घूमे थे और आज सिर दाढ़ी-मुंडाकर, काषाय-वस्त्र पहन, कपाल हाथ में लिये भिक्षाचार कर रहे हैं। क्या यह शोभा देता है ? उसने तत्काल राजा को सूचित किया। घबराया हुआ राजा बुद्ध के पास पहुंचकर बोला-'भन्ते ! आप हमें क्यों लजवाते हैं ? आप भिक्षा-चरण क्यों करते हैं ? क्या आप यह ख्यापित करना चाहते हैं कि इतने भिक्षुओं को हमारे यहां भोजन नहीं मिलता?" बुद्ध ने सहज भाषा में उत्तर दिया--"महाराज ! हमारे वंश का यही आचार है।" राजा ने पुनः कहा-"भन्ते ! निश्चित ही हम लोगों का वंश तो महासम्मत का क्षत्रिय वंश है । इस वंश में एक क्षत्रिय भी तो कभी भिक्षाचारी नहीं हुआ ?" बुद्ध ने प्रत्युत्तर में कहा--"महाराज ! वह राजवंश तो आपका है। हमारा वंश तो दीपंकर आदि का बुद्ध-वंश है। सहस्रशः बुद्ध भिक्षाचारी रहे हैं। उन्होंने इसी माध्यम से जीविका चलाई है।" राजा ने तत्काल बुद्ध का पात्र हाथ में लिया और परिषद् सहित महलों में ले आया। उन्हें उत्तम खाद्य-भोज्य परोसे । भोजन के बाद राहुल-माता को छोड़ सारे अन्तःपुर ने आकर उनकी अभिवन्दना की। परिजन द्वारा कहे जाने पर भी राहुल-माता वन्दना के लिए नहीं आई। उसने एक ही उत्तर दिया-- यदि मेरे में गुण हैं, तो स्वयं आर्यपुत्र मेरे पास आयेंगे, तब मैं उन्हें वन्दना करूंगी।" बुद्ध ने राजा को पात्र दिया और अपने दो अग्र श्रावकों (सारिपुत्त और मौग्गल्लान) को साथ ले राजकुमारी के शयनागार में गए। दोनों अग्न स्रावकों से उन्होंने कहा-"राजकन्या को यथारुचि वन्दना करने देना। कुछ न कहना।" स्वयं बिछाये हुए आसन पर बैठ गए। राज-कन्या शीघ्रता से आई। चरण पकड़कर सिर रखा और यथेच्छ वन्दना की। राजा ने राज-कन्या के बारे में बुद्ध से कहा-"भन्ते ! जिस दिन से आपने काषाय वस्त्र पहने हैं, उस दिन से यह भी काषाय वस्त्र-धारिणी हो गई है। आपके एक बार भोजन को सुन, एकाहारिणी हो गई है। आपने ऊंचे पल्यंक आदि को छोड़ दिया, तो यह भी तख्त पर सोने लगी है। आपके माला, गंध आदि से विरत होने की घटना सुन, स्वयं भी उनसे विरत हो गई है। पीहर वालों ने बहुत से पत्र भेजे। उन्होंने चाहा था, हम तुम्हारी सेवा-सुश्रूषा करेंगे। यह उनके एक पत्र को भी नहीं देखती है।" शुद्धोदन के कथन का अनुमोदन कहते हुए बुद्ध ने कहा-'महाराज ! इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है । इस समय तो यह आपकी सुरक्षा में रह रही है और परिपक्व ज्ञान के साथ भी है; अतः अपनी रक्षा कर सकी है। विगत में भी इसने सुरक्षा साधनों के अभाव में व अपरिपक्व ज्ञान रखते हुए भी पर्वत के नीचे विचरते हुए आत्म-रक्षा की थी।" बुद्ध आसन से उठकर चले गये। तीसरे दिन राजकुमार नन्द के अभिषेक, गृह-प्रवेश और विवाह; ये तीन मंगल उत्सव थे। उसे प्रव्रजित करने के उद्देश्य से बुद्ध स्वयं वहां आये। नन्द के हाथ में पात्र दिया, मंगल कहा और वहां से चल पड़े। चलते समय उन्होंने पात्र वापस नहीं लिया। कुमार भी तथागत के गौरव से इतना अभिभूत था कि उन्हें निवेदन भी १. जातक निदान ४, महावग्ग अट्ठकथा, महास्कन्धक, राहुलवस्तु । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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