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इतिहास और परम्परा ]
भिक्षु संघ और उसका विस्तार
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बुद्ध ने इस प्रकार पन्द्रह प्रातिहार्य दिखलाये, पर, उरुवेल मन में उसी प्रकार सोचता रहा । अन्त में उसकी इस धारणा का निराकरण करने के निमित्त बुद्ध ने कहा - "काश्यप ! तू न तो अर्हत् है ओर न अर्हत के मार्ग पर आरूढ़ । उस सूझ से भी तू सर्वथा रहित है, जिससे कि अर्हत हो सके या अर्हत् के मार्ग पर आरूढ़ हो सके ।' बुद्ध के इस कथन से उरुवेल का सिर श्रद्धा से झुक गया। उनके चरणों में अपना मस्तक रख कर वह बोला- “भन्ते ! मुझे आप से प्रवज्या मिले, उपसम्पदा मिले ।"
बुद्ध ने अत्यन्त कोमल शब्दों में कहा - "काश्यप ! तू पाँच सौ जटिलों का नेता है । उनकी ओर भी देख । "
उरुवेल काश्यप ने बुद्ध के इस संकेत को शिरोधार्य किया । अपने पाँच सौ जटिलों के पास गया । महाश्रमण के पास जाकर ब्रह्मचर्य ग्रहण करने के अपने अभिप्राय से उन्हें सूचित किया। उनको निर्देश किया - "तुम सब स्वतंत्र हो । जैसा चाहो, वैसा करो। "
कुछ चिन्तन के अनन्तर सभी ने एक साथ कहा - "हम महाश्रमण से प्रभावित हैं । यदि आप उनके पास ब्रह्मचर्य-चरण करेंगे तो हम भी आपके अनुगत होंगे।"
सभी जटिल एक साथ उठे । उन्होंने अपनी केश-सामग्री, जटा - सामग्री, भोली, घी की के सामग्री, अग्निहोत्र की सामग्री आदि अपने सामान को जल में प्रवाहित किया और बुद्ध पास उपस्थित हुए | नतमस्तक होकर प्रव्रज्या और उपसम्पदा की याचना की । बुद्ध ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया और उपसम्पदा प्रदान की ।
नंदी काश्यप ने नदी में प्रवाहित सामग्री को देखा, तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ । उसे अपने भाई के अनिष्ट की आशंका हुई । अपने सभी जटिलों को साथ लेकर उरुवेल कास्यप के पास आया। उसे श्रमण- पर्याय में देखकर वह चकित हो गया। सहसा उसके मुँह से प्रश्न निकला - "काश्यप ! क्या यह अच्छा है ?" उरुवेल काश्यप ने उत्तर दिया- "हाँ आवुस ! यह अच्छा है ।" नंदी काश्यप ने भी अपनी सारी सामग्री जल में विसर्जित कर दी और उसने अपने तीन सौ जटिलों के परिवार से बुद्ध के पास उपसम्पदा स्वीकार की ।
गया काश्यप ने भी जल में प्रवाहित सामग्री को देखा। वह भी अपने बन्धुओं के पास आया और उनसे उस बारे में जिज्ञासा की । समाधान पाकर उसने अपने दो सौ जटिलों के साथ बुद्ध से उपसम्पदा स्वीकार की । उरुवेला से प्रस्थान कर बुद्ध एक सहस्र जटिल मिक्षुओं के महासंघ के साथ गया आये ।'
सारिपुत्त और मौग्गल्लान
राजगृह में ढाई सौ परिव्राजकों के परिवार से संजय परिव्राजक रहता था । सारिपुत्त और मोग्गल्लान उसके प्रमुख शिष्य थे । वे संजय परिव्राजक के पास ब्रह्मचर्यं चरण करते थे। दोनों ने एक साथ निश्चय किया, जिसे सर्वप्रथम अमृत प्राप्त हो, वह दूसरे को तत्काल सूचित करें ।
भिक्षु अश्वजित् पूर्वाह्न में व्यवस्थित हो, पात्र व चीवर लेकर, अति सुन्दर आलोकनविलोकन के साथ, , संकोचन - विकोचन के साथ, अधोदृष्टि तथा संयमित गति से भिक्षा के लिए
१. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १-१-१४ व १५ के आधार से ।
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