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इतिहास और परम्परा]
जन्म और प्रव्रज्या को बुलाया और गर्भ-परिवर्तन का आदेश दिया।
आश्विन कृष्णा १३ की मध्य रात्रि थी। उत्तरा फल्गुनी नक्षत्र था। महावीर को देवानन्दा की कुक्षि में आए बयासी अहोरात्र बीत चुके थे । तिरासिवें दिन की मध्य रात्रि में हरिणगमेषी देव ने उनका देवानन्दा की कुक्षि से संहरण कर उन्हें त्रिशला की कुक्षि में प्रस्थापित किया। महावीर तीन ज्ञान से सम्पन्न थे; अतः संहरण से पूर्व उन्हें ज्ञात था, ऐसा होगा। संहरण के बाद भी उन्हें ज्ञात था, ऐसा हो चुका है और संहरण हो रहा है, ऐसा भी उन्हें ज्ञात था।' पश्चिम रात्रि में त्रिशला ने १. सिंह, २. हाथी, ३. वृषभ, ४. लक्ष्मी, ५. पुष्पमाला युग्म, ६. चन्द्र, ७. सूर्य, ८.ध्वजा, ६. कलश, १०. पद्मसरोवर, ११. क्षीर समुद्र, १२. देव-विमान, १३. रत्न-राशि और १४. निर्धूम अग्नि, ये चौदह स्वप्न देखे । वह जगी। प्रसन्नमना राजा सिद्धार्थ के पास आई और स्वप्न-उदन्त कहा। राजा को भी इस शुभसंवाद से हादिक प्रसन्नता हुई । उसने त्रिशला से कहा-"तू ने कल्याणकारी स्वप्न देखे हैं। इनके फलस्वरूप हमें अर्थ, भोग, पुत्र व सुख की प्राप्ति होगी और राज्य की अभिवृद्धि होगी। कोई महान् आत्मा हमारे घर आएगी।"
सिद्धार्थ द्वारा अपने स्वप्नों का संक्षिप्त, किन्तु, विशिष्ट फल सुनकर त्रिशला प्रमुदित हई । राजा के पास से उठकर वह अपने शयनागार में आई । मांगलिक स्वप्न निष्फल न हों, इस उद्देश्य से उसने शेष रात्रि अध्यात्म-जागरण में बिताई।
राजा सिद्धार्थ प्रातः उठा। उसके प्रत्येक अवयव में स्फुरणा थी। प्रातः कृत्यों से निवृत्त हो व्यायाम शाला में आया। शस्त्राभ्यास, वलान (कूदना), व्यामर्दन, मल्लयुद्ध व पद्मासन आदि विविध आसन किए । थकान दूर करने के लिए शतपाक व सहस्रपाक तेल का मर्दन कराया। मज्जन-घर में आकर स्नान किया। गोशीर्षक चन्दन का विलेपन किया। सुन्दर वस्त्र आभूषण पहने । सब तरह से सज्जित हो, सभा-भवन में माया। सिद्धार्थ के सिंहासन के समीपही त्रिशला के लिए यवनिका के पीछे रत्न-जटित भद्रासन रखा गया। राजा ने कौटुम्बिक को अष्टांग निमित्त के ज्ञाता स्वप्न-पाठकों को राज-सभा में आमंत्रित करने का आदेश दिया। कौटुम्बिक ने तत्काल उस आदेश को क्रियान्वित किया। स्वप्न-फल
निमन्त्रण पाकर स्वप्न-पाठकों ने स्नान किया, देव पूजा और तिलक लगाया। दुःस्वप्न-नाश के लिए दधि, दूर्वा और अक्षत से मंगल किये, निर्मल वस्त्र पहने, आभूषण पहने और मस्तक पर श्वेत सरसों व दूर्वा लगाई। क्षत्रिय कुण्ड नगर के मध्य से होते हुए राज-सभा के द्वार पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने परस्पर विचार-विनिमय किया और एक धीमान् को अपना प्रमुख चुना। सभा में प्रविष्ट हो, राजा का अभिवादन किया । सिद्धार्थ ने उन्हें सत्कृत किया और त्रिशला द्वारा संदृष्ट चौदह स्वप्नों का फल पूछा।
अन्योन्य विमर्षणा के अनन्तर स्वप्न-पाठकों ने उत्तर में कहा--"राजन! स्वप्नशास्त्र में सामान्य फल देने वाले बयालीस और उत्तम फल देने वाले तीस महास्वप्न बताये गये हैं। कुल मिलाकर बहत्तर स्वप्न होते हैं। तीर्थङ्कर और चक्रवर्ती की माता तीस महास्वप्नों में से चौदह स्वप्न देखती है । वासुदेव की माता सात, बलदेव की माता चार और मांडलिक राजा की माता एक स्वप्न देखती है।" १. कल्पसूत्र में संहरण-काल को भी अज्ञात बताया है । वह किसी अपेक्षा-विशेष से ही यथार्थ हो सकता है। तत्त्वतः तो अवधि-ज्ञान-युक्त महावीर के लिए वह अगम्य नहीं हो सकता।
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