________________
१३०
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
स्वप्न-शास्त्रियों ने आगे कहा-"राजन् ! महारानी त्रिशला ने चौदह स्वप्न देखे हैं; अतः अर्थ-लाभ, पुव-लाभ सुख-लाभ और राज्य-लाभ सुनिश्चित है । नव मास और साढ़े सात अहोरात्र व्यतीत होने पर कुल-केतु, कुल-दीप, कुल-किरीट, कुल-तिलक पुत्र का प्रसव करेंगी। वह आपकी कुल परम्परा का वर्धक, कुल की कीत्ति, वृद्धि व निर्वाह का सर्जक होगा। पाँचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण, सर्वांग सुन्दर व सुकुमार होगा। लक्षण ब व्यंजन गुणों से युक्त, प्रियदर्शन व शांत होगा।
___ "शैशव समाप्त करते ही परिपक्वज्ञान वाला होगा। जब वह यौवन में प्रविष्ट होगा, दानवीर, पराक्रमी व चारों दिशाओं का अधिशास्ता चक्रवर्ती या चार गति का परिभ्रमण समाप्त करने वाला धर्म-चक्रवर्ती तीर्थङ्कर होगा।"
स्वप्न-पाठकों ने एक-एक कर चौदह स्वप्नों का सविस्तार विवेचन किया । सिद्धार्थ और त्रिशला उसे सुन शतगुणित हर्षित हुए। राजा ने उन्हें जीभर दक्षिणा दी और ससत्कार विदा किया। मात-प्रेम
महावीर ने गर्भ में एक बार सोचा-मेरे हिलने-डुलने से माता को कष्ट होता होगा । मुझे इसमें निमित्त नहीं बनना चाहिए । और वे अपने अंगोपांगों को अकम्पित कर सुस्थिर हो गये। त्रिशला को विविध आशंकाएँ हुई-क्या किसी देव ने मेरे गर्भ का हरण कर लिया है ? क्या वह मर गया है ? क्या वह गल गया है ? विविध आशंकाओं ने त्रिशला केहदय पर एक महरा आघास पहुंचाया । वह सन्न-सी रह गई। विखिन्न वदन रोने लगी। वेदना का भार इतना बढ़ा कि वह मूछित होकर गिर पड़ी। सखियों ने तत्काल उसे सम्भाला और गर्भ-कुशलता का प्रश्न पूछा । वृद्धा नारियां शांति कर्म, मंगल व उपचार के निमित मनौतियां करने लगी और ज्योतिषियों को बुला कर उनसे नामा प्रश्न पुछने लगीं। सिद्धार्थ भी इस संवाद से चिन्तित हुआ। मंत्रीजन भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । राज-भवन का राग-रंग समाप्त हो गया।
महावीर ने ज्ञान-बल से इस उदन्त को जाना । उन्होंने सोचा-मैंने तो यह सब कुछ माता के सुख के लिए किया था, किन्तु, इसका परिणाम तो अनालोचित ही हुआ। उन्होंने माता के सुख के लिए हिलना-डुलना आरम्भ किया। गर्भ की कुशलता से त्रिशला पुलक उठी। उसे अपने पूर्व चिन्तन पर अनुताप हुआ। उसे पूर्ण विश्वास हो गया--न मेरा गर्भ अपहृत हुआ है, न मरा है और न गला है । मैंने यह अमंगल चिन्तन क्यों किया ? त्रिशला की प्रसन्नता से सारा राज-भवन आनन्द मग्न हो गया।
यह घटना उस समय की है, जब महावीर को गर्भ में आये सार्ध छः मास व्यतीत हो चुके थे। इस घटना का महावीर के मन पर असर हुआ। उन्होंने सोचा- मेरे दीक्षा-काल में तो न जाने माता-पिता को कितना कष्ट होगा? माता-पिता के इसी कष्ट को विचार कर गर्भ में ही उन्होंने प्रतिज्ञा की--"पाता-पिता के रहते मैं प्रबजित नहीं होऊँगा।"
गर्भ को सुरक्षित स्थिति में पाकर त्रिशला ने स्नान, पूजन व कौतुक-मंगल किए तथा आभूषणों से अलंकृत हुई । गर्भ-पोषण के निमित्त वह अति शीत, अति उष्ण, अति लिक्त, अति कटुक, अति कषायित, अति आम्ल, अति स्निग्ध, अति रुक्ष, अति आर्द्र, अति शुष्क भोजन का परिहार करती और ऋतु-अनुकूल भोजन करती। अति चिन्ता, अति शोक, अति दैन्य, अति मोद, अति भय, अति त्रास आदि से बचकर रहती।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org