________________
इतिहास और परम्परा ]
काल-निर्णय
७३
उक्त तीनों प्रकरणों की आत्मा एक है और उनके ऊपर का ढांचा कुछ भिन्न है । प्रथम प्रकरण में बुद्ध इस संवाद -श्रवण के बाद आनन्द को उपदेश करते हैं और दूसरे में चुन्द को; दोनों उपदेशों का शब्द - विन्यास कुछ भिन्न है, पर सुझाव एक ही है । पहले और दूसरे में यह संवाद बुद्ध सामगाम' में सुनते हैं और वहीं उपदेश करते हैं। तीसरे प्रकरण में सारिपुत्र पावा में भिक्षुओं को महावीर - निर्वाण की बात कहकर उपदेश करते हैं । कुछ एक लेखकों ने माना है कि इन प्रकरणों में विरोधाभास है; अतः ये प्रामाणिक नहीं होने चाहिए। वस्तुस्थिति यह है - इतिहास किसी भी शास्त्र के सम्मुल्लेख को अक्षरशः मानकर नहीं चला करता । किसी भी सम्मुल्लेख का मूल हार्द यदि असंदिग्ध है, तो इतिहास उसे ले लेता है। सच बात तो यह है कि तीनों प्रकरणों के अन्तर परस्पर विरोधी हों, एसी बात भी नहीं है । पहले प्रकरण में उपदेश-पात्र आनन्द को और दूसरे प्रकरण में चुन्द को जो बताया गया है, उसके अनेक बुद्धि-गम्य कारण हो सकते हैं। हो सकता है, दोनों ने वह उपदेश एक साथ ही श्रवण किया हो और संकलनकारों ने अपनी-अपनी बुद्धि से एक-एक को महत्त्व दे दिया हो। हो सकता है, यह किंचित् कालान्तर से बुद्ध ने दोनों को पृथक्-पृथक् उपदेश दिया हो । तीसरा प्रकरण अपने आप में स्वतंत्र है ही तथा वह तो प्रत्युत पहले दो प्रकरणों का और पुष्टिकारक बन जाता है । पावा में यह घटना घटित हुई थी; अतः पावा में आने पर सारिपुत्र का उस घटना . को याद करना नितान्त स्वाभाविक ही हो सकता है ।
भगवान् महावीर के निर्वाण प्रसंग पर अनुयायियों में मत-भेद की चर्चा तीनों ही प्रकरणों में की गई है । जैन परम्परा इस बात की कोई स्पष्ट साक्षी नहीं देती। हो सकता है, भगवान् महावीर के उत्तराधिकारत्व के विषय में परस्पर चिन्तन चला हो । इन्द्रभूति ( गौतम स्वामी) प्रथम गणधर थे । सामान्यतया उत्तराधिकार उन्हें मिलना चाहिए था । पर वह पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी को यह कह कर मिला कि केवली तीर्थङ्करों के उत्तराfधकारी नहीं बनते । सम्भव है, यह चिन्तन भी उस निष्कर्ष से निकला हो । यह भी असम्भव तो नहीं माना जा सकता कि गौतम स्वामी के अनुयायी साधुओं और सुधर्मा स्वामी के अनुयायी साधुओं में इसी विषय पर यत्किचित् विवाद न हुआ हो । इसकी तनिक सी झलक हमें इस बात से भी मिलती है कि श्वेताम्बर- परम्पराओं में भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा स्वामी को माना जाता है, जब कि दिगम्बर- परम्पराओं में गौतम स्वामी को मगवान् महावीर का प्रथम पट्टधर माना जाता है । बौद्ध प्रकरणों में जो, श्वेत वस्त्रधारी' शब्द आया है, वह भी 'अचेल ' और ' सचेल' निर्ग्रन्थों के संघर्ष को इंगित करता है ।" हो सकता है, बौद्धों ने उक्त तीनों प्रकरणों को बहुत बढ़ावा दे दिया हो। यह होता है कि एक सम्प्रदाय की तनिक-सी घटना को प्रतिस्पर्धी सम्प्रदाय के लोग अतिरंजित करके ही बहुधा व्यक्त करते हैं ।
१. वेवञ्या नामक शक्य सामगाम में रहते थे तथा बाण वेध के ज्ञाता थे; अत: "वेधज्ञ” कहा गया है । द्रष्टव्य, Dictionary or Pali Proper Names, vol II, P. 924.
२. उक्त समाधान आनुमानिक है, किन्तु जो संकेत इससे उभरे हैं, हो सकता है, गहराई में जाने से श्वेताम्बर और दिगम्बर के भेद का मूल भी यहीं-कहीं निकल जाये । शोधशील विचारकों के लिए यह ध्यातव्य है ।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org