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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
श्री धर्मानन्द कोसम्बी ने जैन आगमों में वर्णित गोशालक के न्यूनता सूचक वर्णन को बहुत ही अतिरंजित माना है । '
डॉ. जेकोबी ने उक्त प्रकरणों को इसलिए भी अप्रामाणिक माना है कि इनमें से कोई समुल्लेख महापरिनिग्वाणसुत में नहीं है, जिसमें कि भगवान् बुद्ध के अन्तिम जीवनप्रसंगों का ब्यौरा मिलता है। डॉ० जेकोबी के इस तर्क से यह तो प्रमाणित नहीं होता कि ये तीनों प्रकरण असंगत हैं; किन्तु यह अवश्य प्रमाणित हो जाता है कि ये प्रकरण बुद्ध-निर्वाणसमय के निकट के नहीं हैं ।
मुनि कल्याणविजयजी ने उक्त तीनों प्रकरणों को एक भ्रान्ति मात्र का परिणाम माना है। उन्होंने जहां महावीर के निर्वाण प्रसंग को उनकी रुग्णावस्था में हुई अफवाह माना है, वहीं उन्होंने निर्वाणन्तर बताये गये निर्ग्रन्थों के पारस्परिक कलह को जमालि की घटना के साथ जोड़ा है। उनका कहना है: “निर्ग्रन्थों के द्वैधीभाव और एक दूसरे की खटपट का बौद्धों ने जो वर्णन किया है, वह भगवती सूत्र में वर्णित जमालि सौर गौतम इन्द्रभूति के विवाद का विकृत स्वरूप है ।" भगवान् महावीर के साथ गोशालक का विवाद श्रावस्ती नगरी में होता है और जमालि व इन्द्रभूति का शास्त्रार्थं चम्पा नगरी में होता है। इन दोनों घटनाओं केन क्षेत्र एक हैं, न काल एक तथा न इन घटनाओं में परस्पर कोई विषय का भी सम्बन्ध है । ऐसी स्थिति में यह संगति उक्त तीनों प्रकरणों को भ्रान्ति मात्र प्रमाणित करने में यत्किं - चित् भी समर्थ नहीं है ।
तीनों प्रकरणों में निर्वाण तथा विवाद का पावा में घटित होने का स्पष्ट उल्लेख है । श्रावस्ती और चम्पा की घटनाओं का वहाँ क्या सम्बन्ध जुड़ सकता है ? भगवान् महावीर जैसे युगपुरुषों की निर्वाण की कोई असत्य बात उठे और वह चिरकाल तक चलती ही रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? कालान्तर से सारिपुत्र पावा में ही आकर उस घटना को दोहराते हैं। तब तक यदि महावीर का निर्वाण हुआ ही नहीं था उनको यह अवगति नहीं हो गई होती ? किन्हीं उदन्तों का ऐसा कहा जा सकता ।
१. देखें, पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म ।
२. श्रमण, वर्ष १३, अंक ६, पृ० १३ |
३. वीर - निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० १२-१३ ।
४. भगवती सूत्र, शतक ६, उ० ३३ ।
[ खण्ड
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इन तीनों प्रकरणों की वास्तविकता में हमें इसलिए भी सन्देह नहीं करना चाहिए कि जैन आगमों में महावीर निर्वाण के सम्बन्ध में कोई विरोधी उल्लेख नहीं मिल रहा है । जैन आगमों में यदि महावीर और बुद्ध के निर्वाण की पूर्वापरता के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख होता तो हमें उन तीन प्रकरणों की वास्तविकता में फिर भी सन्देह हो सकता था । बौद्ध-शास्त्रों में भी तीन प्रकरणों के अतिरिक्त ऐसा कोई मी चौथा प्रकरण होता, जो महावीर - निर्वाण से पूर्व बुद्ध-निर्वाण की बात कहता, तो हमें गम्भीरता से सोचना होता । जो प्रकरण अपने आप में असंदिग्ध हैं, उन्हें तथ्य- निर्णय के लिए प्रमाणभूत मान लेना जरा भी असंगत नहीं है ।
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तो क्या पावा के लोगों से सामञ्जस्य 'संगति' नहीं
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