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________________ इतिहास और परम्परा ] महावीर की ज्येष्ठता उक्त तीन प्रकरणों के अतिरिक्त और भी अनेक ऐसे प्रसंग बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होते हैं, जो बुद्ध का छोटा होना और महावीर का ज्येष्ठ होना प्रमाणित करते हैं । अब तक के अधिकांश विद्वानों ने केवल उक्त तीन प्रकरणों पर ही आलोडन- विलोडन किया है । तत्सम्बन्धी अन्य प्रसंगों पर न जाने उनका ध्यान क्यों नहीं गया, जिनमें बुद्ध स्वयं अपने को तात्कालिक सभी धर्मनायकों में छोटा स्वीकार करते हैं । वे प्रकरण क्रमश: निम्न हैं: काल-निर्णय (१) एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन में विहार कर रहे थे । राजा प्रसेनजित् कौशल भगवान् के पास गया, कुशल प्रश्न पूछे और जिज्ञासा व्यक्त की— "गौतम ! क्या आप भी अधिकार- पूर्वक यह कहते हैं, आपने अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि को प्राप्त कर लिया है ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "महाराज ! यदि कोई किसी को सचमुच सम्यग् कहे, तो वह मुझे ही कह सकता है । मैंने ही अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि का साक्षात्कार किया है ।" राजा प्रसेनजित् कौशल ने कहा – “गौतम ! दूसरे श्रमण-ब्राह्मण, जो संघ के अधिपति, गणाधिपति, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थंकर और बहुजन सम्मत पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, निगण्ठ नातपुत्त, संजय वेलट्ठिपुत्त, पकुध कच्चायन, अजित केसकम्बली आदि से भी ऐसा पूछा जाने पर, अनुत्तर सम्यग् सम्बोधि प्राप्ति का अधिकार - पूर्वक कथन नहीं करते हैं । आप तो अल्पवयस्क व सद्यः प्रव्रजित हैं; फिर यह कैसे कह सकते हैं ? बुद्ध ने कहा - "क्षत्रिय, सर्प, अग्नि व भिक्षु की अल्प वयस्क समझकर कभी भी उनका परिभव व अपमान नहीं करना चाहिए | कुलीन, उत्तम, यशस्वी क्षत्रिय को अल्प वयस्क समझना भूल है । हो सकता है, समयान्तर से वह राज्य प्राप्त कर मनुष्यों का इन्द्र हो जाये और उसके बाद तिरस्कर्ता का राज दण्ड के द्वारा प्रतिशोध ले। अपने जीवन की रक्षा के लिए इससे बचना आवश्यक है। गांव हो या अरण्य, सर्प को भी छोटा नहीं समझना चाहिए । सर्प नाना रूपों से तेज में विचरता है । समय पाकर वह नर, नारी, बालक आदि को डंस सकता है । जीवन रक्षा के निमित इससे बचना भी आवश्यक है। बहुभक्षी कृष्ण वर्मा पावक को दहर नहीं समझना चाहिए। सामग्री पाकर वह अग्नि सुविस्तृत होकर नर-नारियों को जला देती है; अतः जीवन-रक्षा के निमित इससे बचना भी आवश्यक है । अग्नि वन को जला देती है । अहोरात्र बीतने पर वहां अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं । किन्तु, शील-सम्पन्न भिक्षु अपने तेज से जिसे जला डालता है, उसके पुत्र, पशु तक भी नहीं होते। उसके दायाद भी धन नही पाते । वह् निःसन्तान और निर्धन सिर कटे ताल वृक्ष जैसा हो जाता है । अत: पण्डित पुरुष अपने हित का चिन्तन करता हुआ भुजंग, पावक, यशस्वी क्षत्रिय और शीलसम्पन्न भिक्षु के साथ अच्छा व्यवहार करें ।' ७५ (२) एक बार भगवान् बुद्ध राजगृह में वेलुवन कलन्दक निवास में विहार कर रहे थे । समिय परिव्राजक के एक हितैषी देव ने उसे कुछ प्रश्न सिखाये और कहा – “जो श्रमणब्राह्मण इन प्रश्नों का उत्तर दे, उसी के पास तुम ब्रह्मचर्य स्वीकार करना ।" समय परिव्राजक प्रातः काल उठा। वह संधी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, १. संयुक्त निकाय, दहर सुत्त, ३-१-१ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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