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________________ ७३ आगम और त्रिपिटक : एक शनुशीलन [खण्ड :१ तक वहां किसी श्रमण-ब्राह्मण ने वास नहीं किया था। भगवान् बुद्ध मल्ल में चारिका करते हुए पावा पहुंचे और चुन्द कार-पुत्र के आम्र-वन में ठहरे। जब पावा-वासी मल्लों को इसकी सूचना हुई, तो वे उन्हें अपने संस्थागार के अभिमंत्रित करने के लिए आये। उन्होंने निवेदन किया- “संस्थागार का सर्वप्रथम आप ही परिभोग करें। उसके अनन्तर उसका हम परिभोग करेंगे। यह हमारे दीर्घरात्र तक हित-सुख के लिए होगा।" बुद्ध ने मौन रह कर स्वीकृति दी । मल्ल वापस शहर में आये। उन्होंने संस्थागार को अच्छी तरह सजाया। सब जगह फर्श बिछाया और आसन स्थापित किये। पानी के मटके रखे और दीपक जलाये। बुद्ध के पास आये और उन्हें सूचित किया। बुद्ध पात्र-चीवर लेकर भिक्ष-संघ के साथ संस्थागार में आये। पावा-वासी मल्लों को बुद्ध ने बहुत रात तक धार्मिक कथा से संदर्शित, समुत्तेजित और संग्रहर्षित कर विजित किया। भिक्षु-संघ को तुष्णीभूत देख कर भगवान् ने सारिपुत्त को आमंत्रित किया और निर्देश दिया--"सारिपुत्त ! भिक्षु-संघ स्त्यानमृद्ध-रहित है । तुम उन्हें धर्म-कथा कहो । मेरी पीठ अगिया रही है, मैं लेटूंगा।" । सारिपुत्त ने बुद्ध का निर्देश शिरोधार्य किया। चौपेती संघाटी बिछवा, दाहिनी करवट के बल, पैर पर पैर रख, स्मृति-संप्रजन्य के साथ उत्थान-संज्ञा मन में कर सिंह-शय्या लगाई। निगण्ठ नातपुत्त की कुछ ही समय पूर्व पावा में मृत्यु हुई थी। उनके काल करने से निगण्ठों में फूट पड़ गई और दो पक्ष हो गये। दोनों विवाद में पड़, एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए कह रहे थे- 'तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, मैं इस धर्म को जानता हूं।' तू इस धर्म को क्या जानेगा ?' 'तू मिथ्यारूढ़ है, मैं सत्यारूढ़ हूं।' 'मेरा कथन अर्थ-सहित है, तेरा नहीं है।' 'तूने पहले कहने की बात पीछे कही और पीछे कहने की बात पहले कही।' 'तेरा विवाद बिना विचार का उल्टा है। तू ने वाद आरम्भ किया, किन्तु,निगृहीत हो गया।' 'इस वाद से बचने के लिए इधर-उधर भटके।' 'यदि इस बाद को समेट सकता है, तो. समेट ।' निगण्ठों में मानों युद्ध ही हो रहा था। निगण्ठ, नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निगण्ठों में वैसे ही विरक्त चित्त हो रहे थे, जैसे कि वे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अ-नैर्याणिक, अन्-उपशम-संवर्तनिक, अ-सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, आश्रय-रहित धर्म में है। आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को आमंत्रित किया और उन्हें निगण्ठ नातपुत्त की मृत्यु का संवाद तथा निगण्ठों की फूट की विस्तृत जानकारी देते हुए कहा-"हमारे भगवान् का यह धर्म सु-आख्यात, सुप्रवेदित, नैर्याणिक, उपशम-संवर्तनिक, सम्यक्-सम्बुद्ध-प्रवेदित है। यहां सबको ही अविरुद्ध भाषी होना चाहिए। विवाद नहीं करना चाहिए, जिससे कि यह ब्रह्मचर्य अध्वनिक (चिरस्थायी) हो और बहुजन-हितार्थ, बहुजन-सुखार्थ, लोक अनुकम्पा के लिए तथा देव व मनष्यों के हित व सख के लिए हो।" भगवान् बुद्ध ने दूर से सारिपुत्त का उपदेश-प्रकार सुना। वे तत्काल उठ गये। उन्होंने आयुष्मान् सारिपुत्त को अमंत्रित किया और कहा- "सारिपुत्त ! सारिपुत्त ! तूने भिक्षओं को अच्छे संगीति-पर्याय (एकता का ढंग) का उपदेश दिया है।" आयुष्मान् सारिपुत्त ने कहा- "शास्ता इससे सहमत हुए, मुझे इसकी प्रसन्नता है। अन्य भिक्षुओं ने भी आयुष्मान् सारिपुत्त के भाषण का अभिवादन किया ।" १. दीघ निकाय, संगीति-परियाय सुत्त, ३-१०-१, २, ३ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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