________________
४५२
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
यथार्थता के कुछ निकट हो जाता है। णिसीह में काम-भावना-सम्बन्धी कुछ एक प्रकरण ऐसे हैं, जो सचमुच ही गोप्य हैं । इस दृष्टि से भी उसका 'अप्रकाश्य' अर्थ संगत ही है।
मूल और विस्तार
णिसीह सूत्र मूलतः न अति विस्तृत है, न अति संक्षिप्त । इसमें २० उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक का विषय कुछ सम्बद्ध है, कुछ प्रकीर्णक है। अन्तिम उद्देशक में प्रायश्चित्त करने के प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। भाषा अन्य जैन-आगमों की तरह अर्धमागधी है। बहुत सारे स्थलों पर भाव अति संक्षिप्त हैं। उनकी यथार्थता को समझने के लिए अपेक्षाएं खोजनी पड़ती हैं । उदाहरणार्थ-जो साधु अपने आँखों के मैल को, कानों के मैल को, दाँतों के मैल को व नाखूनों के मैल को निकालता है, विशुद्ध करता है, निकालते व विशुद्ध करते किसी अन्य को अच्छा समझता है तो उसे लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है। जो साधु अपने शरीर का स्वेद, विशेष स्वेद, मैल, जमा हुआ मैल निकाले, शुद्ध करे, निकालते हुए को, विशुद्ध करते हुए को अच्छा जाने तो वह मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। जो साधु दिन का लाया हुमा आहार दिन को भोगे, तो वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। यहाँ शोभा, आसक्ति, प्रथम प्रहर का चतुर्थ प्रहर में आदि निमित्त ऊपर से न जोड़े जायें, तो भाव बुद्धिगम्य नहीं बनते । बीस उद्देशकों में कुल मिला कर १६५२ बोल हैं अर्थात् इतने कार्यों पर प्रायश्चित्त-विधान है।
भाव-भाषा संक्षिप्त है, इसलिए आगे चलकर आचार्यों द्वारा इस पर चूणि, निर्य क्ति, भाष्य आदि लिखे गये। इस प्रकार कुल मिलाकर यह एक महाग्रन्थ बन जाता है। तथापि आगम रूप से मूल णिसीह ही माना जाता है। व्याख्याएँ कहीं-कहीं तो मूल आगम की भावना से बहुत ही दूर चली गई हैं; अतः वे जैन-परम्परा में सर्व मान्य नहीं हैं। प्रस्तुत प्रकरण में मल आगम ही विवेचन और समीक्षा का विषय है।
विनय पिटक
बौद्ध-धर्म के आधारभूत तीन पिटकों में एक विनय पिटक है। पारम्परिक धारणाओं के अनुसार बुद्ध-निर्वाण के अनन्तर ही महाकाश्यप के तत्त्वावधान में प्रथम बौद्ध संगीति हुई और वहीं त्रिपिटक साहित्य का प्रथम प्रणयन हुआ है। विनय पिटक के अन्तिम प्रकरण
१. जे भिक्खु अप्पणो अत्थिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा, णपमलं वा णहिरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णिहरंतं वा, विसोहंतं वा, साइज्जइ। जे भिक्खु अप्पणो कायाओ सेयं वा, जलं वा, पंकं वा, मलं वा णिहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णिहरंतं वा, विसोहंतं वा, साइज्जइ।
-णिसीह सुत्त उ० ३, बोल ६९-७० २. जे भिक्खु दिया असणं वा, ४ पडिग्गहित्ता दिया मुंज इ, दिया मुंजंतं वा साइज्जइ।
णिसीह सुत्त उ०११, बोल १७६
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org