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इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
४३५ आकर्षित किया और कहा-"निगण्ठ नातपुत्त आपको मांसाहार की गाली देता हुआ घूमता है।" बुद्ध ने उत्तर दिया-"निगण्ठ नातपुत्त न केवल वर्तमान में ही मेरी निन्दा करता है; बल्कि उसने पहले भी ऐसा ही किया है।"
बुद्ध ने पूर्व-जन्म की कथा सुनाते हुए कहा-"पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य-काल में बोधिसत्त्व ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए। बड़े होने पर ऋषि-प्रव्रज्या के अनुसार प्रविजत हुए । हिमालय में वास करने लगे। एक बार नमक-खटाई खाने के अभिप्राय से वे वाराणसी आये । अगले दिन भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश किया। एक गृहस्थ ने तपस्वी को तंग करने के उद्देश्य से उन्हें अपने घर बुलाया, बिछे आसन पर बिठाया और मत्स्य-मांस का भोजन परोसा। भोजन कर चुकने पर उस गृहस्थ ने कहा- 'यह मांस तुम्हारे ही उद्देश्य से प्राणियों का वध कर निष्पन्न किया गया था; अतः इसका पाप केवल हमें ही न लगे, अपितु तुम्हें भी लगे।' उसने गाथा कही
हन्त्वा झत्वा बधित्वा च देति दानं असञतो। एविसं मत्त भुञ्जमानो स पापेन उपलिप्पति ।।
मार कर, परितापित कर, वध कर असंयमी दान देता है । इस प्रकार का भोजन करने वाला पाप-भागी होता है।' उत्तर में बोधिसत्त्व ने गाथा कही
पुतदारम्मि चे हत्वा देति दान असोतो।
भुञ्जकानोदि सप्पो न पापेन उपलिप्पति । अन्य मांस की तो चर्चा छोड़ो। यदि कोई दुःशील अपने पुत्र व स्त्री को मार कर भी उनके मांस का दान करता है, तो प्रज्ञावान्, क्षमा-मैत्री आदि गुणों से युक्त पुरुष उसे ग्रहण कर पाप से लिप्त नहीं होता।
बोधिसत्त्व धर्मोपदेश कर आसन से उठ कर चले गये।
शास्ता ने जातक का मेल बैठाते हुए कहा- "उस समय गृहस्थ निगण्ठ नातपुत्त था और तपस्वी तो मैं ही था।"
-जातक अट्ठकथा, तेलोवाद जातक, २४६ के आधार से
समीक्षा
विनय पिटक और अंगुत्तर निकाय में जहाँ सिंह सेनापति की इस घटना का उल्लेख है, वहाँ चौराहों पर मांसाहार की निन्दा करने के प्रसंग में निगण्ठ नातपुत्त का नाम न होकर केवल निगण्ठों का ही नामोल्लेख है । लगता है, अट्ठकथाकार ने जातक गाथाओं के साथ पूर्व-जन्म की घटना को जोड़ने के लिए निगण्ठ नातपुत्त की ही नगर-चर्चा का पात्र
१. देखें, इसी प्रकरण का प्रथम प्रसंग।
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