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________________ ४२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ आकोटक देवपुत्र ने नाना तैर्थिकों की स्तुति में कहा-"पकुध कात्यायन, निगण्ठ नातपुत्त, मक्खलि गोशाल, पूरण कस्सप आदि श्रामण्य-पर्याय में रमण करने वाले गणनायक हैं । सत्पुरुषों से ये कैसे दूर जा सकते हैं ?" __ वेटम्बरी देवपुत्र ने आकोटेक देवपुत्र का प्रतिरोध करते हुए कहा-'हुंआ-हुँआ कर रोने वाला तुच्छ सियार सिंह के सदृश नहीं हो सकता। नग्न, असत्यवादी ये गणाचार्य, जिनके चलने में सन्देह किया जा सकता है, सज्जनों के सदृश कभी नहीं हो सकते।" मार ने वेटम्बरी देवपुत्र में प्रवेश कर भगवान् के समक्ष कहा-"जो तप और दुष्कर क्रिया के अनुष्ठान में लगे हैं और उनका विचारपूर्वक पालन करते हैं तथा जो सांसारिक रूप में आसक्त हैं, देवलोक में आनन्द लूटने वाले हैं, वे ही परलोक को बनाने का अच्छा उपदेश देते हैं।" भगवान् बुद्ध समझ गये, यह मार बोल रहा है। उन्होंने उत्तर में कहा-"राजगृह के पर्वतों में जैसे विपुल पर्वत, हिमालय के शिखरों में श्वेत' पर्वत, आकाश-गामियों में सूर्य, जलाशयों में समुद्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ हैं; वैसे ही देवगण-सहित समग्र लोक में बुद्ध अग्रगण्य हैं।" -संयुत्त निकाय, नानातित्थिय सुत्त, २-३-१० के आधार से। समीक्षा देवों के धर्म-चर्चा में रस लेने का उल्लेख आगमों में भी यत्र-तत्र मिलता है। कुण्ड. कोलिक से चर्चा करने वाला देव गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति को मानने वाला था, जब कि कुण्डकोलिक महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति में विश्वास करता था। शकडालपुत्र को सन्देश देने वाला देव महावीर का अनुयायी प्रतीत होता है, जब कि तब तक शकडालपुत्र गोशालक का अनुयायी था। ३२. पिंगलकोच्छ ब्राह्मण एक समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन में विहार कर रहे थे। पिंगलकोच्छ ब्राह्मण भगवान् के पास गया । कुशल-प्रश्न पूछ कर एक ओर बैठ गया। पिंगलकोच्छ ने भगवान से कहा- "गौतम ! पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केस कम्बली, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त और निगंठ नातपुत्त संघपति, गणपति, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर हैं। क्या ये सभी अपने वाद को समझते हैं या नहीं समझते या कोई-कोई समझते हैं या कोई-कोई नहीं समझते हैं ?" बुद्ध ने उत्तर दिया- "ब्राह्मण ! इस प्रसंग को यहीं रहने दो। मैं तुझे उपदेश देता हूँ। तू उसे सुन और हृदयंगम कर।" १. 'कैलाश'-संयुत्त निकाय अट्ठकथा। २. देखें, 'गोशालक' प्रकरण के अन्तर्गत पृ० ३३-४। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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