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कवल्य और बोधि
कैवल्य
"अनुत्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आर्जव, स्वाध्याय, वीर्य, लाघव, क्षान्ति, मुक्ति (निर्लोभता), गुप्ति, तुष्टि, सत्य, संयम, तप और सुचरित तथा पुष्ट फल देने वाले निर्वाण मार्ग से अपनी आत्मा को भावित करते हुए महावीर ने बारह वर्ष का सुदीर्घ समय बिता दिया। तेरहवें वर्ष में एक बार वे, जंभिय ग्राम के बाहर, ऋजुबालिका नदी के उत्तर तट पर, श्यामाक गाथापति के खेत में, व्यावृत चैत्य के न अधिक दूर और न अधिक समीप, ईशान कोण में, शालवृक्ष के नीचे, गोदोहिकासन से, ध्यानस्थ होकर आतापना ले रहे थे। उस दिन उनके निर्जल षष्टभक्त तप था। बैशाख शुक्ला दशमी का दिन था। पूर्वाभिमुख छाया थी। अपराह्न का अन्तिम प्रहर था। विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था। पूर्ण निस्तब्ध व शान्त वातावरण में एकाग्रता की उत्कृष्टता में महावीर शुक्ल ध्यान में लीन थे। प्रबल पुरुषार्थी महावीर उस समय साधना के अन्तिम छोर तक पहुँचे । चार घाती कर्मों का क्षय किया और उन्होंने केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त किया। वह ज्ञान और दर्शन चरम, उत्कृष्ट, अनुत्तर, अनन्त, व्यापक, सम्पूर्ण, निरावरण और अव्याहत था। इसकी प्राप्ति के बाद वे मनुष्य, देव तथा असुर-प्रधान लोक के समस्त जीवों के सभी भाव और पर्याय जानने देखने लगे।
कैवल्य-प्राप्ति के साथ-साथ देवलोक में प्रकाश हुआ। देवों के आसन चलित होने लगे। देवों के इन्द्र, सामानिक देव, त्रायस्त्रिश देव, लोकपाल, देवों की अग्रमहिषियाँ, पारिवारिक देव, सेनापति, आत्म-रक्षक देव और लोकान्तिक आदि देव अहं-प्रथमिका से मनुष्यलोक में उतर आये । स्थान-स्थान पर देवों की सभाओं का समायोजन होने लगा। देवियां ईषद् मुस्कान से मधुर संगायन करने लगीं। सब दिशाएं शान्त एवं विशुद्ध हो रहीं थीं। अत्यन्त आश्चर्यकारक प्रकाश से सारा संसार जगमगा उठा । आकाश में गम्भीर घोष से दुन्दुभि
१. आयारंग, श्रु० २, अ० १५; कप्प सुत्त, कल्पद्रुम कलिका वृत्ति के आधार से।
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