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इतिहास और परम्परा] कैवल्य और बोधि
१७१ बजने लगी। नारक जीवों ने अभूतपूर्व सुख की सांस ली। मन्द-मन्द सुखकर हवा चलने लगी। अनेक अलौकिक घटनाएँ घटी।'
बोधि
बुद्ध दिन में नदी के तटवर्ती सुपुष्पित शालवन में विहार करते रहे। सायंकाल वहाँ से चले और बोधि वृक्ष के समीप आये। मार्ग में उन्हें श्रोत्रिय घसियारा घास लेकर आता हुआ मिला। उसने बुद्ध को आठ मुट्ठी तृण दिये। बुद्ध उन्हें लेकर बोधि-मण्ड पर चढ़े और दक्षिण दिशा में उत्तर की ओर मुंह कर खड़े हुए। उस समय दक्षिण चक्रवाल दबकर मानो अवीचि (नरक) तक चला गया और उत्तर चक्रवाल उठकर मानो भवाग्र तक ऊपर चला गया। बुद्ध को अनुभव हुआ, यहाँ सम्बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होगी। वे वहाँ से हटे और प्रदक्षिणा करते हुए पश्चिम दिशा में जाकर पूर्वाभिमुख होकर खड़े हो गये । पश्चिम चक्रवाल दब कर अवीचि तक चला गया और पूर्व चक्रवाल भवाग्र तक। वे जहाँ-जहाँ जाकर ठहरे, वहाँ-वहाँ नेमियों को विस्तीर्ण कर नाभि के बल पर लेटाये हुए शकट के पहिये के सदृश महापथ्वी ऊँची-नीची हो उठी। बुद्ध को वहाँ भी अनुभव हुआ, यहाँ भी बोधि-प्राप्ति न वे वहाँ से हटे और उत्तर में जाकर दक्षिणाभिमुख होकर खड़े हुए। उस समय भी उत्तर का चक्रवाल दबकर अवीचि तक चला गया और दक्षिण का चक्रवाल भवाग्र तक । उस स्थान को भी बुद्धत्व-प्राप्ति के लिए अनुपयुक्त समझकर वे वहाँ से हटे, प्रदक्षिणा की और पूर्व में जाकर पश्चिमाभिमुख होकर खड़े हो गये। उनके मानस में तत्काल यह विचार उभरा; "यह सभी बुद्धों से अपरित्यक्त स्थान है। यही दुःख-पञ्जर के विध्वंसन का स्थान है।" उन्होंने तृणों के अग्र भाग को पकड़ कर हिलाया। वे तृण तत्काल ही चौदह हाथ के आसन में बदल गये। तण जिस आकार में गिरे, वह बहुत ही सुन्दर था। चित्रकार या शिल्पकार भी वैसा आकार चित्रित नहीं कर सकते । बुद्ध ने बोधिवृक्ष की ओर पीठ कर एकाग्र हो, दृढ़ निश्चय किया"चाहे मेरी चमड़ी, नसें, अस्थियां ही अवशेप क्यों न रह जायें, शरीर, मांस, रक्त आदि भी क्यों न सूख जायें, सम्यक् सम्बोधि प्राप्त किये बिना मैं इस आसन को नहीं छोडूंगा।" पूर्वाभिमुख होकर सौ बिजलियों के गिरने से भी न टूटने वाला अपराजित आसन लगाकर वे बैठ गये।
मार ने बुद्ध को उस आसन से विचलित करने के लिए वायु, वर्षा, पाषाण, आयुध, अंगारे, धधकती राख, बालू, कीचड़ और अंधकार की भयंकर वृष्टि की। किन्तु, वह सफल न हो सका। सूर्यास्त से पूर्व ही पराभूत होकर वह वहाँ से भाग निकला। उस समय बुद्ध के चीवर पर बोधि वृक्ष के अंकुर गिर रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था कि लाल मूंगों की वर्षा से उनकी पूजा हो रही है । प्रथम याम' में उन्हें पूर्व जन्मों का ज्ञान हुआ, दूसरे याम में दिव्य चक्षु विशुद्ध हुआ और अन्तिम याम में उन्होंने पतीच्चसमुप्पाद का साक्षात्कार किया। चक्रवालों के बीच आठ सहस्र लोकान्तर, जो पहले सात सूर्य के प्रकाश से भी कभी प्रकाशित नहीं होते थे, उस समय
१.त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ५। २. चार घण्टे का एक याम । प्रथम याम रात्रि का प्रथम तृतीयांश ।
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