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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
गर्भाधान के समय महावीर की माता सिंह, गज, वृषभ आदि चौदह स्वप्न देखती है। बुद्ध की माता केवल एक स्वप्न देखती है, हाथी का । प्रातः स्वप्न-पाठक महावीर के लिए चक्रवर्ती या जिन होने का और बुद्ध के लिए चक्रवर्ती या बुद्ध होने का फलादेश करते हैं ।
जन्म-प्रसंग पर देवों का संसर्ग दोनों ही युगपुरुषों के यहाँ बताया गया है। दोनों ही परम्पराओं के वर्णन आलंकारिक हैं । जातक कथा का वर्णन अधिक विस्तृत और अतिशयोक्ति प्रधान है । महावीर' और बुद्ध-दोनों ही अपनी-अपनी माता के गर्भ से मल-निर्लिप्त जन्म लेते हैं।
___ शुद्धोदन सद्यः-जात शिशु बुद्ध को काल देवल तपस्वी के चरणों में रखना चाहता है, पर, इससे पूर्व बुद्ध के चरण तपस्वी की जटाओं में लग जाते हैं, इसलिए की बुद्ध जन्म से ही किसी को प्रणाम नहीं किया करते । महावीर की जीवन-चर्या में ऐसी कोई घटना नहीं घटती है, पर, तीर्थंकरों का भी यही नियम है कि वे किसी पुरुष-विशेष को प्रणाम नहीं करते।
महावीर का अंक-धाय, मज्जन-धाय आदि पाँच धायें और बुद्ध का निर्दोष धायें लालनपालन करती हैं।
शाला आदि में जाकर शिल्प, व्याकरण आदि का अध्ययन न महावीर करते हैं और न बुद्ध । महावीर एक दिन के लिए शाला में जाते हैं और इन्द्र के व्याकरण-सम्बन्धी प्रश्नों का निरसन कर अपनी ज्ञान-गरिमा का परिचय देते हैं। बुद्ध एक दिन शिल्प-विशारदों के बीच अपनी शिल्प दक्षता का परिचय देते हैं।
महावीर भोग-समर्थ होकर और बुद्ध सोलह वर्ष के होकर दाम्पतिक जीवन प्रारम्भ करते हैं । जातक शीत, ग्रीष्म और वर्षा- इन ऋतुओं के पृथक्-पृथक् तीन प्रासाद कहकर वैभवशीलता व्यक्त करते हैं । जैन परम्परा 'विस्तीर्ण व विपुल' कहकर ही बहुधा राज-प्रासादों का वर्णन करती है। अन्यान्य प्रकरणों से भी पता चलता है, उस युग में श्रीमन्त लोग पृथक्-पृथक ऋतुओं के लिए पृथक्-पृथक् प्रकार के भवन बनाते और ऋतु के अनुसार उनमें निवास करते
बुद्ध के मनोरञ्जन के लिए चम्मालीस सहस्र नर्तिकाओं की नियुक्ति का वर्णन है।
प्रतिबोध-समय पर महावीर को लोकान्तिक देव आकर प्रतिबुद्ध करते हैं और बुद्ध को देव आकर वृद्ध, रोगी, मृत व संन्यायी के पूर्व शकुनों से प्रतिबुद्ध करते हैं । बोधि-प्राप्ति के अनन्त र बुद्ध को भी लोकान्तिक देवों की तरह ही सहम्पति ब्रह्मा आकर धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए अनुप्रेरित करते है। दीक्षा से पूर्व महावीर वर्षीदान करते हैं । बुद्ध के लिए ऐसा उल्लेख नहीं
थे।
नगर-प्रतोली से बाहर होते ही मार बुद्ध से कहता है--"आज से सातवें दिन तुम्हारे लिए चक्र-रत्न उत्पन्न होगा; अत: घर छोड़कर मत निकलो।" चक्रवर्ती होने वाले के लिए चक्र-रत्न की परिकल्पना जैन परम्परा में भी मान्य है। १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, प्रथम पर्व (हिन्दी अनुवाद),पृ० १३६ । २. कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पृ० १२७ । ३. उदवाई, सू०६ : विच्छिण्णविउलभवन । ४. भगवती सूत्र, श०६, उ० ३३ । ५. जातक अटकथा, सन्ति के निदान, पृ० १५४ । ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम् प्रथम पर्व, सर्ग ३, श्लो० ५१३ ।
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