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इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या
१२७ महावीर का दीक्षा-समारोह इन्द्र आदि देव, नन्दीवर्धन आदि मनुष्य आयोजित प्रकार से मानते हैं। वे महावीर को अलंकृत करते है, शिविकारूढ़ करते हैं, जूलूस निकालते हैं, यावत् दीक्षा-ग्रहण-विधि सम्पन्न कराते हैं । जिस रात को बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण होता है, उसी दिन इन्द्र के आदेश से बुद्ध के स्नाकोत्तर-काल में देव आते हैं और अन्य उपस्थितियों से अदृष्ट रहकर ही उनकी वेश-सज्जा करते हैं।
दोनों प्रकरणों को एक साथ देखने से लगता है, आगामों की दीक्षा-शैली का अनुसरण जातक में हुआ है। बुद्ध के घटनात्मक दीक्षा-प्रयाण में देव-संसर्ग को यथाशक्य ही जोड़ा जा सकता था। पर, यह कमी भी कथाकार ने तब पूरी की, जब बुद्ध रात्रि के नीरव वातावरण में अपने अश्व को बढ़ाये ही चले जा रहे थे। वहाँ साठ-साठ हजार देवता चारों ओर हाथ में मशाल लिए चलते हैं।
जन्म, दीक्षा आदि विशेष-सूचना-प्रसंगों पर जैन समुल्लेख इन्द्र के सिंहासन का प्रकम्पित होना बतलाते हैं और बौद्ध समुल्लेख उसका तप्त (गर्म) होना बतलाते हैं।
__ महावीर ने दीक्षा ग्रहण के समय पंच मुष्टिक लुन्चन किया। बुद्ध ने अपना केश-जूट तलवार से काटा। महावीर के केशों को इन्द्र ने एक वज्र रत्नमय थाल में ग्रहण कर क्षीर समुद्र में विसर्जित किया। बुद्ध ने अपने कटे केश-जूट को आकाश में फेंका। योजन-भर ऊँचाई पर वह अधर टिका । इन्द्र ने उसे वहां से रत्नमय करण्य में ग्रहण कर त्रयस्त्रिश लोक में चूड़ामणि चैत्य का स्वरूप दिया।
महावीर के लिए कहा गया है--अवठ्ठिए केसमंसु रोमनहे' अर्थात् केश, स्मश्र, रोम, नख अवस्थित (अवृद्धि-शील) रहते हैं। दीक्षा-ग्रहण-काल से बुद्ध के भी केश अवस्थित बताये गये हैं। दोनों ही परम्पराओं ने इसे अतिशय माना है। दोनों के ही केश प्रदक्षिणावर्त' (धुंघराले) बताये गये हैं।
जिस अश्व पर सवार होकर बुद्ध घर से निकले, उसका नाम कन्थक था। वह गर्दन से लेकर पूंछ तक अठारह हाथ लम्बा था।
बुद्ध में एक सहस्त्र कोटि हाथियों जितना बल बतलाया गया है। जैन परम्परा के अनुसार चालीस लाख अष्टापद का बल एक चक्रवर्ती में होता है और तीर्थङ्कर तो अनन्तबली होते हैं। महावीर ने जन्म-जात दशा में ही मेरु को अंगूठे मात्र से प्रकम्पित कर इन्द्र आदि देवों को सन्देह-मुक्त किया। बुद्ध के जीवन-चरित में ऐसी कोई घटना नहीं मिलती, पर, योगबल से यदा-कदा वे नाना चामत्कारिक स्थितियां सम्पन्न करते रहे हैं ।
भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल का सुषम-सुषम आरा बीत चुका था। सुषम आरा बीत चुका था। सुषम-दुःषम आरा भी बीत चुका था और दुःषम-सुषम आरा भी बहुत कुछ बीत चुका था। केवल वह पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ मास अवशेष था। उस समय भगवान् महावीर ग्रीष्म १. समवायांग, सम० ३४३ २. उल्लेखनीय यह है कि जैन आगमों (समवायांग, सम० ३४; उववाई, सू०१०) में 'जिन'
के अतिशयों को "चउत्तीसबुद्ध 'अतिसे"..."चौंतीस बुद्ध के अतिशय" कहा है। 'जिन' और 'बुद्ध' शब्द की एकार्थता के लिए यह एक सुन्दर प्रमाण हैं। ३. महावीर के विषय में बताया गया है-'णिकुरुंब-निचिय-कुंचिय-पयाहिणावत्तमुद्धसिरए'
उववाई, सू०१०)।
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