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________________ बागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : रूद्रायणाववान प्रकरण पालि-साहित्य में नहीं है और न वह हीनयान-परम्परा के अन्य कथा-साहित्य में भी कहीं मिलता है। दिव्यावदान और अवदानकल्पता; ये दोनों ही ग्रन्थ महायान-परम्परा के हैं । महायानी त्रिपिटक मूलतः संस्कृत में ही हैं और वे उत्तरकालिक हैं ।' दिव्यावदान स्वयं में एक संकलन मात्र है और इसका रचना-काल ईस्वी २०० से ३५० तक का माना जाता है। ऐसी स्थिति में बहुत सम्मव है ही कि उद्रायन के जैन आख्यान को रूद्रायणावदान के रूप में परिवर्तित किया गया है। एक ही राजा महावीर और बुद्ध दोनों के पास दीक्षा ले और मोक्ष प्राप्त करे, यह सम्भव भी कैसे हो सकता है ? इस कथानक की कृत्रिमता इससे भी व्यक्त होती है कि राजा बिम्बिसार और उद्रायण कामैत्री-सम्बन्ध ठीक उसी प्रकार से कराया जाता है, जैसा कि जैन परम्परा में अभयकुमार और आर्द्रककुमार का कराया जाता है तथा बौद्ध परम्परा में बिम्बिसार और पक्कुसाति का कराया जाता हैं। इस अवदान से यह भी भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि महावीर और बुद्ध दोनों के पास एक ही व्यक्ति के दीक्षित होने के जो अन्य प्रकरण हैं, वे भी एक-दूसरी परम्परा में रूपान्तरित किये गये हो सकते हैं। ख्यातनामा व्यक्ति को अपने-अपने धर्म में समाहित करने का ढर्रा बहुत पहले से रहा है। यही तो कारण है कि राम वैदिक, बौद्ध व जैन ; सभी परम्पराओं के एक आदर्श पुरुष बन रहे हैं । सभी परम्पराओं ने अपने-अपने ढंग से उनकी जीवन-कथा गढ़ी है। उदायन का जैन आख्यान जैन आगम भगवती में मिलता है। उत्तरज्झयणाणि मे६ इसका संक्षिप्त उल्लेख है। इन प्राकृत ग्रन्थों के अतिरिक्त यह कथानक उत्तरवर्ती टीका व चूर्णि-साहित्य में भी चर्चित हुआ है। . जैन आगम उदायन के पुत्र अभीचकमार को भी निगण्ठ-उपासक मानते हैं। राज्य न देने के कारण पिता के प्रति उसके मन में द्रोह बना रहा ; अतः वह असुर-योनि में उत्पन्न हुआ। चण्ड-प्रद्योत युद्ध-प्रियता श्रेणिक बिम्बिसार और अजातशत्रु कूणिक के अतिरिक्त जिस राजा का नाम दोनों परम्पराओं में आता है, वह है-चण्ड-प्रद्योत । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार वह राजा प्रारम्भ में बहुत चण्ड, युद्ध-प्रेमी, व्यसनी व अनीति-परायण था। दोनों ही परम्पराओं में उसके १. दिव्यावदान, सम्पा० पी०एल० वैद्य, प्रस्तावना। २. वही, पृ० १७। ३. देखें, 'गोशालक' प्रकरण के अन्तर्गत 'आर्द्रककुमार'। ४. देखें, इसी प्रकरण के अन्तर्गत 'श्रेणिक बिम्बिसार'। ५. शतक १३, उद्देशक ६। ६. अ० १८, गा०४८ । ७. भगवती सूत्र, शतक १३, उद्देशक ६ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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