SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परा ] अनुयायी राजा ३१५ तो एक कुशल रथिक; एक महावीर के पास दीक्षित होता है, तो एक बुद्ध के पास । अभयराजकुमार निगण्ठ-धर्म से बुद्ध धर्म में आता है । यदि अभय एक ही व्यक्ति होता, तो महावीर के पास उसके दीक्षित होने की चर्चा कैसे मिलती ? श्रेणिक बिम्बिसार के अनेकानेक राजकुमार थे । किन्हीं दो का नाम साम्य कोई आश्चर्य का विषय नहीं । वस्तुतः एक ही व्यक्ति के लिए दोनों परम्पराओं की ये सारी चर्चाएँ हों, तो यह स्पष्ट है कि जैन-दीक्षा का उल्लेख अनुत्तरोववाईयदसा आगम का है । यह मूलभूत ग्यारह अंगों में एक है। उसका रचना-काल विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी के पूर्व का ही है। बौद्ध-दीक्षा का उल्लेख अट्ठकथा तथा थेराअपदान का है। अट्ठकथा तो उत्तरकालिक है ही, अपदान भी पिटक - साहित्य में सबसे उत्तरवर्ती माना जाता है | 3 उद्रायण दोनों परम्पराओं में दीक्षित होने वालों में एक नाम राजा उद्रायन का भी है । बोद्धग्रन्थ अवदानकल्पलता के अनुसार इसका नाम उद्रायण तथा दिव्यावदान' के अनुसार रुद्रायण है । उत्तरवर्ती जैन साहित्य में भी इसका नाम 'उद्रायण' मिलता है । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार यह सिन्धुसौवीर देश का स्वामी था। महावीर और बुद्ध के सम्पर्क में आने का वर्णन पृथक्-पृथक् प्रकार से मिलता है। राजधानी का नाम जैन मान्यता में बीतभय है और बौद्ध मान्यता में रोक है। धर्म-प्रेरणा दोनों 'परम्पराओं के अनुसार उसकी दिवंगत रानी स्वर्ग से आकर करती है । महावीर मगध से सिन्धुसौवीर जाकर उसे दीक्षित करते हैं, बुद्ध राजा के सिन्धुसौवीर से मगध आने पर उसे दीक्षित करते हैं । दोनों ही परम्पराओं के अनुसार दीक्षित होने के पश्चात् भिक्षु उदायन ( उद्रायण) अपनी राजधानी में जाते हैं और दुष्ट अमात्यों की प्रेरणा से राजा उनका वध करवा देता है । जैन मान्यता के अनुसार दीक्षा से पूर्व उद्रायण ने अपना राज्य अपने भानेज केशी को सौंपा था, इसलिए कि मेरा पुत्र अभीचकुमार राजा होकर नरकगामी न बने । बौद्ध मान्यता के अनुसार उसने अपना राज्य अपने पुत्र शिखण्डी को सौंपा था। दोनों ही परम्पराओं के अनुसार राजा केवली या अर्हत् होकर निर्वाण प्राप्त करता है और दैवी प्रकोप से नगर घुलिसात् हो जाता है । " १. पं० दलसुख मालवणिया, आगम-युग का जैन दर्शन पृ० २८ । २. थेरा अपदान, भद्दियवग्गो, अभयत्थेरअपदानं । ३. भिक्षु जगदीश काश्यप, खुद्दक निकाय, खण्ड ७, नालन्दा, Introduction, P. v. ४. अवदान, ४० । ५. वही, ३७ । ६. उद्दायण राया, तावसभत्तो - आवश्यकचूर्ण, पूर्वार्ध, पत्र ३६६ । ७. जैन विवरण के लिए देखें, 'भिक्षु संघ और उसका विस्तार' प्रकरण के अन्तर्गत 'उदायन' तथा बौद्ध विवरण के लिए देखें, दिव्यावदान, रूद्रायणावदान, ३७ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy