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________________ १२२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ माला आदि से शास्ता का अभिवादन किया, धर्मोपदेश सुना और अगले दिन के भोजन का निमन्त्रण देकर सभी लौट आए। दीपंकर बुद्ध के आगमन के उपलक्ष में नगर को विशेष रूप से सजाया गया। पानी के बहाव से टूटे-फूटे स्थानों पर रेत डालकर भूमि को समतल किया गया । चाँदी जैसी श्वेत बालू को फैलाकर उस पर लाज (खील) और पुष्प विकीर्ण किए गए। गों के वस्त्रों की ध्वजाएँ फहरायी गई और स्थान-स्थान पर कदली तथा पूर्ण घट की पंक्तियाँ प्रतिष्ठित की गई । आनन्दित होकर मनुष्यों की टोलियाँ झूमती हुई इधर-उधर घूम रही थीं। उसी समय सुमेध तापस अपने आश्रम से निकल कर आकाश-मार्ग से कहीं जा रहे थे। उन्होंने नगर की साज-सज्जा तथा आनन्दमग्न मनुष्यों को घूमते देखा। उनके मन में उस के कारण को जानने की उत्कण्ठा जागृत हुई। आकाश से उतरे और नगर-अलंकरण के बारे में जिज्ञासा की । जनता से उत्तर मिला--"भन्ते! दीपंकर बुद्ध होकर श्रेष्ठ धर्म का प्रचार करते हुए हमारे नगर के सुदर्शन महाविहार में वास कर रहे हैं। हमने भगवान् को निमंत्रित किया है । इस उपलक्ष से भगवान् के आगमन-मार्ग को हम अलंकृत कर रहे हैं।" तपस्वी सुमेध सोचने लगे----"बुद्ध शब्द का सुनना भी लोक में दुर्लभ है ; बुद्ध के जन्म लेने की तो बात ही क्या? मुझे भी इन मनुष्यों के साथ मिलकर बुद्ध का मार्ग अलंकृत करना चाहिए।" और वे तत्काल ही मार्ग-शोधन में लग गए। कुछ ही समय में दीपंकर बुद्ध आ गए। भेरी बजने लगी । मनुष्य और देवता साध-साध कहने लगे । आकाश से मन्दार पष्पों होने लगी। सुमेध अपनी जटा खोलकर, बल्कल, चीवर और चर्म बिछाकर भमि पर लेट गये और विचार किया : “यदि दीपंकर मेरे शरीर को अपने चरण कमल से स्पर्श करें तो मेरा हित हो।" लेटे-लेटे ही उन्होंने दीपंकर की बुद्ध-श्री को देखते हुए चिन्तन किया--- "मैं सब क्लेशों का नाश कर निर्वाण-प्राप्त कर सकता है, किन्तु केवल यही मेरा ध्येय नहीं है। मेरे लिये तो यही योग्य है कि मैं भी दीपंकर बुद्ध की तरह परम सम्बोधि को प्राप्त कर मानवसमूह को धर्म की नौका पर चढ़ा संसार-सागर के पार ले जाऊँ और तदनन्तर स्वयं निर्वाण प्राप्त करूं।" उन्होंने बुद्ध-पद की प्राप्ति के लिये उल्कट अभिलाषा (अभिनीहार) प्रकट की। बद्धों के जीवन-परित्याग को भी वे उद्यत थे। दीपंकर तपस्वी सुमेध के पास आकर बोले-"इस जटिल तापस को देखो। एक दिन बुद्ध होगा। यह बुद्ध का व्याकरण हुआ।" “यह एक दिन बुद्ध होगा"-...इस वाक्य को सुनकर देवता और मनुष्य आनन्दित हुए और बोले-"तपस्वी सुमेध बुद्ध-बीज है, बुद्ध-अंकुर है।" वहाँ पर जो 'जिन-पुत्र' (बुद्ध-पुत्र) थे, उन्होंने सुमेध की प्रदक्षिणा की। लोगों ने कहा .... "आप निश्चित ही बुद्ध होंगे । दृढ़ पराक्रम करें, आगे बढ़ें, पीछे न हट।" सुमेध ने सोचा, बुद्ध का वचन अमोघ होगा। बुद्धत्व की आकांक्षा की सफलता के लिए सुमेध बुद्ध-कारक धर्मों का अन्वेषण करने लगे और उनमें महान् उत्साह प्रदर्शित किया। दश पारभितायें प्रकट हुईं, जिनका आसेवन पूर्व काल में बोधि-सत्वों ने किया था। इन्हीं के ग्रहण से बुद्धत्व की प्राप्ति होगी। सुमेध ने बुद्ध-गुणों को ग्रहण कर दीपंकर को नमस्कार किया। सुमेध की चर्या अर्थात् साधना आरम्भ हुई और ५५० विविध जन्मों के पश्चात् वे तुषित् लोक में उत्पन्न हुए। वहाँ बोधि-प्राप्ति के सहस्र वर्ष पूर्व बुद्ध कोलाहल शब्द इस अभिप्राय से हुआ कि सुमेध की सफलता निश्चित है । तुषित् लोक से च्युत होकर मायादेवी के गर्भ में उनकी अवक्रान्ति हुई और यथासमय बुद्ध के रूप में उनका जन्म हुआ।' १. जातक अटकथा, दूरे निदान, पृ० २ से ३६ के आधार पर। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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