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इतिहास और परम्परा
काल-निर्णय
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"पि परूममिनेन सकिये पिपुले पि स्वगे आरोधवे। एतिय अठाय च सावने कटे खुदका च उढाला च पकमंतु ति। अता पि च जानंतु इयं पकख। - "किति (?) चिरठति के सिया । इय हि अठे वढि वढिसिति विपुल च वढिसिति । अपलघियेना दियढिय वाढिसत (1) इय स अठे पवतिसु लेखापेत वालतहध च (1) प्रथि
"सिलाठमे सिलाठमसि लाखापतवयत । एतिना च वय-जनेना यावतक तुपक अहाले सवर विवसेतवायति । व्युठेना सावने कटें २५६ सतवियासात ।"
"देवताओं के प्रिय इस प्रकार कहते हैं : अढाई वर्ष से अधिक हुए कि मैं उपासक हुआ, पर मैंने अधिक उद्योग नहीं किया; किन्तु एक वर्ष से अधिक हुए, जब से मैं संघ आया हूँ, तब तब से मैंने अच्छी तरह से उद्योग किया है। इस बीच में जो देवता सच्चे माने जाते थे, वे अब झूठे सिद्ध कर दिये गये हैं। यह उद्योग का फल है। यह (उद्योग का फल) केवल बड़े ही लोग पा सके, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि छोटे लोग भी उद्योग करें, तो महान् स्वर्ग का सुख पा सकते हैं। इसलिए यह अनुशासन लिखा गया है कि 'छोटे और बड़े उद्योग करें।' मेरे पड़ोसी राजा भी इस अनुशासन को मानें और मेरा उद्योग चिर स्थित रहे। इस बात का विस्तार होगा और अच्छा विस्तार होगा। कम-से-कम डेढ़ गुना विस्तार होगा। यह अनुशासन यहाँ और दूर के प्रान्तों में पर्वतों की शिलाओं पर लिखा जाना चाहिए, जहाँ कहीं शिला स्तम्भ हों, वहां यह अनुशासन शिलास्तम्भ पर भी लिखा जाना चाहिए। इस अनुशासन के अनुसार जहाँ तक आप लोगों का अधिकार हो, वहाँ-वहां आप लोग सर्वत्र इसका प्रचार करें। यह अनुशासन (मैंने) उस समय लिखा, जब बुद्ध भगवान् के निर्वाण को २५६ वर्ष हुए थे।"
लघु शिलालेख सं० २ में, जो कि ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर व जतिंग रामेश्वर में प्राप्त हुआ है, यही बात स्वल्प भिन्नता के साथ मिलती है । उसमें सम्राट अशोक लिखते हैं :
'सुवणगिरि ते अयपुतस महामाताणं च बचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतविया हेवं च वतविया । देवाणं पिये आणपयति ।
___"अधिकानि अढातियानि वय सुमि.............दियढिय वढिसिति। इयं च सावणे सावपते व्युधेन २५६ ।"
"सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र (कुमार) और महामात्यों की ओर से इसिला के महामात्यों को आरोग्य कहना और यह सूचित करना कि देवताओं के प्रिय आज्ञा देते हैं कि अढाई वर्ष से अधिक हुये ... डेढ़ गुना विस्तार होगा। यह अनुशासन (मैंने) बुद्ध के निर्वाण से २५६वें वर्ष से प्रचारित किया (या सुनाया था)।"
उक्त दोनों अभिलेखों में दो बातें विशेष ध्यान देने की हैं—अशोक का ‘संघ उपेत' होना और बुद्ध-निर्वाण के २५६ वर्षों बाद इस लेख का लिखा जाना।
उक्त लेखों में प्रयुक्त 'संघ उपेत' शब्दों पर नाना अनुमान बाँधे गये हैं। डा० राधाकुमुद मुखर्जी ने इसकी चर्चा करते हुए लिखा है : २"संघे उपेते-इन शब्दों के द्वारा
१. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख । R. It is difficult to understand what Asoka exactly intends by the
expression Sanghe Upete which has been translated above to
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