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________________ भिक्षु और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ एक बार राजा पौषघशाला में पौषध कर रहा था। रात में धर्म- जागरणा करते हुए उसके मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ; वे ग्राम, नगर, आगर आदि धन्य हैं, जो भगवान् वर्षमान के चरण रज से पवित्र होते हैं। यदि किसी समय ऐसा सौभाग्य वीतभय को भी प्राप्त हो, तो मैं गार्हस्थ्य को छोड़ कर प्रव्रजित हो जाऊँ । १६८ भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे । उन्होंने उदायन के मनोगत विचारों को जाना और उस ओर प्रस्थान कर दिया । सात सौ कोस का उग्र विहार था । मार्ग की विकटता और पुरीषहों की अधिकता से बहुत से मुनि मार्ग में ही मृत्यु पा गये । वीतमय में भगवान् महावीर के आगमन से उदायन अत्यन्त प्रमुदित हुआ । महावीर के समवशरण में पहुँचा और दीक्षित होने की अपनी चिरकालीन भावना व्यक्त की। राजा ने प्रार्थना की "भन्ते ! जब तक 我 पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षित होने के लिए श्रीचरणों में उपस्थित न हो जाऊँ, विहार के लिए शीघ्रता न करें।" प्रत्युत्तर में महावीर ने कहा – “पर, इस ओर प्रमाद न करना ।" भ्रमण करेगा। मैं इसका राजा उदायन राजमहलों में लोट भाया । मार्ग में वह राज व्यवस्था का ही चिन्तन कर रहा था । सहसा उसके मानस में विचार उभरा, यदि मैं पुत्र को, राज्याधिकारी बनाता हूँ तो वह इसमें आसक्त हो जायेगा और चिरकाल तक संसार में निमित्त बन जाऊँगा । कितना अच्छा हो, यदि मैं राज्य भार कुमार को न देकर भानजे केशी को दूं । कुमार की सुरक्षा स्वतः हो जायेगी । राजा ने अपना चिन्तन सुदृढ़ किया और उसे क्रियान्वित भी कर दिया। समारोह पूर्वक स्वयं अभिनिष्क्रमित हुआ और महावीर के चरणों में प्रव्रजित हो गया । ' १. दीक्षा के बाद — दुष्कर तप का अनुष्ठान आरम्भ किया । उपवास से आरम्भ कर मासावधि तक तप किया। स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि से अपनी आत्मा को भावित किया । अरस- नीरस आहार व लम्बी-लम्बी तपस्याओं से वे अतिशय कृश हो गये । उनका शारीरिक बल क्षीण हो गया । वे बीमार रहने लगे । रोग ने उग्र रूप धारण कर लिया । ध्यान, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग आदि में विघ्न होने लगा । वैद्यों ने उन्हें दही के प्रयोग का परामर्श दिया । गोकुल में उसकी सहज सुलभता थी; अतः राजर्षि उस ओर ही विहार करने लगे । राजर्षि उदायन एक बार बिहार करते हुए वीतभय आये। राजा केशी को उसके मंत्रियों ने राजर्षि के विरुद्ध यह कह कर भ्रान्त कर दिया कि राजर्षि राज्य छीनने अभिप्राय से आये हैं । आप सावधान रहें । दुर्बुद्धि केशी उस भ्रान्ति में आ गया । उसने राजर्षि के निवास के लिए शहर में निषेध करवा दिया। राजर्षि ने घूमते हुए शहर के कोने-कोने को छान डाला। कहीं स्थान न मिला । अन्ततः एक कुम्मकार के घर उन्होंने विश्राम लिया । राजा केशी ने उन्हें मरवाने के निमित्त आहार में कई बार विष मिलवाया, किन्तु, एक देवी ने उन्हें उससे उबार लिया। एक बार देवी की अनुप Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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