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इतिहास और परम्परा ]
पन्द्रह सौ तीन तापस
पन्द्रह सौ तीन तापसों का एक समुदाय अष्टापद पर्वत पर आरोहण कर रहा था । उनमें कोडिन्न, दिन्न और सेवाल ; ये तीन प्रमुख थे । प्रत्येक के पाँच-पाँच सौ का परिवार था । तपस्या से वे सब कृशकाय हो चुके थे । कोडिन्न सपरिवार अष्टापद की पहली मेखला तक, दिन्न दूसरी मेखला तक और सेवाल तीसरी मेखला तक पहुँचा । अष्टापद पर्वत में एक-एक योजना की समग्र आठ मेखलाएँ थीं। आगे बढ़ने में वे तापस अपने आपको असमर्थ पा रहे थे ।
भिक्षु संघ और उसका विस्तार
गणधर गौतम उसी अवधि में उन सब तापसों के देखते-देखते अपने लब्धि - बल से अष्टापद पर्वत के शिखर पर चढ़ गये । उनके इस तपोबल से सभी तपस्वी अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने निश्चय किया, इन्द्रभूति अष्टापद से उतर कर जब यहाँ आयेंगे, हम सब उनके
शिष्य हो जायेंगे |
इन्द्रभूति वापस आये । तापसों ने उनसे कहा - "आप हमारे गुरु हैं और हम आपके शिष्य ।" इन्द्रभूति वहाँ उन पन्द्रह सौ तीन तापसों को दीक्षित किया और अपने अक्षीण महानस - लब्धि-बल से खीर के एक ही भरे-पूरे पात्र से समग्र तापस-श्रमणों को उन्होंने भोजन कराया । अपने गुरु के इस लब्धि-बल को देखकर सभी तापस कृतकृत्य हो गये । '
सभी जैन परम्पराएं इस घटना-प्रसंग को सर्वथा प्रामाणिक नहीं मानती हैं । राजा दशार्णमद्र
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दशार्णभद्र दशार्णपुर का राजा था। उसके पाँच सौ रानियों का परिवार था और बहुत बड़ी सेना थी । भोजन से निवृत्त होकर राजा आमोद-प्रमोद में संलग्न बैठा था । सहसा उद्यानपाल आया और उसने सूचित किया - "देव ! अपने उद्यान में आज चरम तीर्थङ्कर भगवान् श्री महावीर पधारे हैं ।" राजा दशार्णभद्र उस संवाद से अत्यन्त हर्षित हुआ । उसी समय सिंहासन से नीचे उतरा और उसी दिशा में नत मस्तक होकर नमस्कार किया। बहुत सारा प्रीति दान देकर उद्यानपाल को विसर्जित किया। राजा दशार्णभद्र के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, "कल प्रातः मैं भगवान् को ऐसी अपूर्व समृद्धि के साथ वन्दना करूँगा, जिसके साथ आज तक किसी ने भी न की हो।" अपने सैन्याधिकारी को बुलाया और निर्देश दिया“कल प्रातः काल के लिए सेना को अभूतपूर्व सुसज्जित करो।" एक कौटुम्बिक पुरुष को निर्देश दिया – “ नगर की सफाई कराओ, चन्दन - मिश्रित सुगन्धित जल का छिड़काव कराओ, सर्वत्र पुष्प वर्षा करो, बंदनवार और रजत कलशों की श्रेणियों से मार्ग को सुसज्जित करो और
स्थिति में विष मिश्रित आहार राजर्षि के पात्र में आ गया। राजर्षि ने अनासक्त भाव से उसे खा लिया। शरीर में विष फैल गया। राजर्षि ने अनशन किया और एक मास की अवधि के बाद केवल ज्ञान प्राप्त कर समाधि मरण प्राप्त किया ।
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राजर्षि की मृत्यु से देवी क्रुद्ध हुई। उसने धूल की वर्षा की और वीतभय नगर को घूलिसात् कर दिया । केवल वह कुम्भकार बचा ।
-उत्तराज्झयणाणि, भावविजयगणि- विरचित वृत्ति, अ० १८, पत्र सं ० ३८० से ३८८ के आधार से ।
१. श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पृ० १६६ से १७१; कल्पसूत्र बालावबोध, पृ० २६० के आधार से ।
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