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________________ २०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : १ सारे शहर को ध्वजाओं से छा दो।" एक अन्य कोटुम्बिक पुरुष को निर्देश दिया- 'तुम उद्घोषणा करो-प्रातः काल सभी सामन्त, मंत्रीगण और नागरिक सुसज्जित होकर आयें। सबको सामूहिक रूप से भगवान् को वन्दन करने के लिए जाना है।" राजा दशार्णभद्र प्रातः काल उठा। स्नान किया, चन्दन का विलेपन किया, देवदूष्य वस्त्र पहने और आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। सुसज्जित प्रधान हाथी पर बैठा। राजा के मस्तक पर छत्र था और चारों ओर चामर डुलाए जा रहे थे। राजा के पीछे-पीछे हजारों सामन्त और प्रमुख नागरिक सुसज्जित हाथियों, घोड़ों और रथों पर आरूढ़ होकर चले । सारी सेना भी क्रमशः चली। पांच सौ रानियाँ भी रथों में आरूढ़ हुईं। गगनचुम्बी सहस्रों पताकायें फहरा रही थीं। वाद्यों के घोष से भू-नभ एकाकार हो रहा था। सहस्रों मंगल-पाठक मांगलिक वाक्यों को दुहरा रहे थे । गायकों का मधुर संगीत श्रोताओं को आकर्षित कर रहा था। अद्भुत समृद्धि और पूरे परिवार के साथ राजा दशार्णभद्र भगवान् श्री महावीर के समवशरण में पहुँचा। हाथी से उतरा, छत्र-चामर आदि राज्य-चिन्हों का त्याग किया। तीन प्रदक्षिणा पूर्वक भगवान् को नमस्कार किया, स्तुति की और एक ओर बैठ गया ।। शकेन्द्र ने राजा दशार्णभद्र के गर्वपूर्ण अभिप्राय को जाना । उसने सोचा-"दशार्णभद्र की भगवान महावीर के प्रति अनुपम भक्ति है, तथापि उसे गर्व नहीं करना चहिए।" राजा को प्रतिबोध देने के लिए शकेन्द्र उद्यत हुआ। उसने ऐरावण नामक देव को आज्ञा देकर समुज्ज्वल और समुन्नत चौसठ हजार हाथियों की विकर्वणा करवाई। प्रत्येक हाथी के पाँचपाँच सौ बारह मुख, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत, प्रत्येक दांत पर आठ-आठ वापिकाएं, प्रत्येक वापिका में आठ-आठ कमल और प्रत्येक कमल पर एक-एक लाख पंखुड़ियाँ थीं। प्रत्येक पंखुड़ी में बत्तीस प्रकार के नाटक हो रहे थे। कमल की मध्यकणिका पर चतुर्मुखी प्रासाद थे। सभी प्रासादों में इन्द्र अपनी आठ-आठ अग्र-महिषियों के साथ नाटक देख रहा था। इस प्रकार की उत्कृष्ट समृद्धि के साथ आकाश को आच्छन्न करता हुआ शकेन्द्र भी भगवान् महावीर को नमस्कार करने के लिए आया। राजा दशार्णभद्र ने उसे देखा । अन्तर्मुख होकर सहसा उसने सोचा-"मैंने अपनी समृद्धि का व्यर्थ ही घमण्ड किया। इन्द्र की इस सम्पदा के समक्ष तो मेरी यह सम्पदा नगण्य है। छिछले व्यक्ति ही अपने ऐश्वर्य पर गर्व करते हैं। इसका प्रायश्चित्त यही है कि मैं भागवती दीक्षा ग्रहण कर अजर, अमर और अन्यून मोक्ष सम्पदा को प्राप्त करूँ।" राजा दशार्णभद्र अपने स्थान से उठा । भगवान् के समक्ष आया और निवेदन किया-"भन्ते ! मैं विरक्त हूँ। प्रव्रजित कर आप मुझे अनुगृहीत करें।' राजा ने अपने हाथों लुञ्चन किया और दीक्षित हुआ। शकेन्द्र ने राजा को दीक्षित होते देखा। उसे अनुभव हुआ कि इस प्रतिस्पर्धा में वह भी पराजित हो गया है । वह मुनि दशार्णभद्र के पास आया और उनके इस प्रयत्न की मुक्त कण्ठ से स्तुति करने लगा। इन्द्र अपने स्वर्ग में गया और मुनि दशार्णभद्र भगवान महावीर के भिक्षु-संघ में साधना-लीन हो गये।' १. उत्तरज्झयणाणि, भावविजयगणि-विरचित-वृत्ति, अ० १८, पत्र सं० ३७५ से ३७६ के आधार से। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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