SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास और परम्परा भिक्षु संघ और उसका विस्तार १६७ शालिभद्र की सगी बहिन सुभद्रा राजगह में ही एक धनाढ्य के पुत्र धन्य को ब्याही थी। धन्य के सात पत्नियाँ और भी थीं। एक दिन वे सब अपनी अशोक वाटिका में धन्य को स्नान करा रही थीं। सुभद्रा को अपने भाई की याद आई और आँखों में आँसू छलक पड़े। धन्य की पीठ पर वे अश्रु-बिन्दु गिरे । उष्ण स्पर्श के कारण धन्य ने मुड़कर ऊपर झांका तो देखा, सुभद्रा की आँखे गीली हैं और अश्रु बरस रहे हैं । धन्य ने कहा-"प्रिये ! यह क्या ? इस आमोद-प्रमोद की बेला में आँसू ?" सुभद्रा ने कहा-"पतिदेव ! मेरा भाई शालिभद्र दीक्षा-ग्रहण करेगा; अतः वह प्रतिदिन एक पत्नी और एक शय्या का त्याग कर रहा है।" धन्य ने स्वाभिमान भरी नजर से सुभद्रा के चेहरे की ओर झांकते हुए कहा"तम्हारा भाई बहत भीरु और कातर है। दीक्षा ही लेनी है तो फिर एक-एक पत्नी का त्याग कैसा?" सभद्रा का स्वाभिमान जग पड़ा। उसने भी कड़ाक से कहा-"पतिदेव ! कहना सहज होता है, करना ही कठिन होता है। आप भी ऐसा करके तो बतायें ?" धन्य पर जैसे चाबूक की मार पड़ गई हो । उसका मन हिनहिना उठा । सब पलियों की ओर झांकते हुए वह बोल उठा-"दूर रहो ! मैं तुम सब का परित्याग कर चुका हूँ।" पत्नियाँ देखते ही रह गईं। अन्य पारिवारिक जन भी उसे मोड़ने में असमर्थ रहे। धन्य शालिभद्र के घर पहुँचा। शालिभद्र से मिला और उससे कहा-“यह क्या कायरता है ? चलो, हम दोनों साला-बहनोई आज ही भगवान् महावीर के पास दीक्षित हों।" शालिभद्र तो प्रस्तुत था ही। केवल माता के आग्रह से ऐसा कर रहा था। उसने भी शेष पत्नियों का परित्याग एक साथ कर दिया। दोनों ने महावीर के समवशरण में आकर भागवती दीक्षा ग्रहण की। महावीर के भिक्षु-संघ की अभिवृद्धि में चार चांद और लगे। इस प्रकार की दीक्षाओं से और अनेक लोग प्रेरित होते थे और दीक्षा ग्रहण करते थे। राजर्षि उवायन सिंधु सौवीर देश की उस समय भारत के विशाल राज्यों में गणना की जाती थी। वीत भय उसकी राजधानी थी। सोलह बृहद् देश, तीन सौ तिरसठ नगर और आगर उसके अधीन थे। वहाँ के राजा का नाम उदायन था।२ चण्डप्रद्योतन आदि दश मुकुटधारी महापराक्रमी राजा उसकी सेवा में रहते थे। रानी का नाम प्रभावती था, जो वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। राजकुमार का नाम अभीचकुमार और भानजे का नाम केशी था। प्रभावती निर्ग्रन्थ धाविका थी, पर, उदायन तापस-भक्त था। प्रभावती मृत्यु पाकर स्वर्ग में गई। उसने अपने पति को प्रतिबोध दिया और उसे दृढ़-निष्ठ श्रावक बनाया। १. (क) भिक्षु-जीवन का विवरण देखें- 'पारिपाश्विक भिक्षु-भिक्षुणियाँ' प्रकरण में । (ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पूर्व १०, सर्ग १० के आधार से । (ग) जैन परम्परा में धन्य और शालिभद्र से सम्बन्धित अनेक काव्य-ग्रन्थ तथा चौपाइयाँ उपलब्ध हैं। २.विजयेन्द्र सूरि (तीर्थकर महावीर, खण्ड २, पृ० ५०६) ने इस राजा का नाम उद्रायण माना है, पर, आगम उसे स्पष्टतः उदायन (सेणं उदायणे राया) ही कहते हैं । (देखें-भगवती, श० १३, उ०६)। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy