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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ पोंछने के वस्त्र के रूप में किया है।" राजा और सभासद यह सुन कर आश्चर्य-मग्न हो रहे थे। भद्रा ने राजा श्रेणिक को अपने हर्म्य आने का आमंत्रण दिया। श्रेणिक तो शालिभद्र और उसके वैभव को देखने के लिए स्वयं उत्सुक हो चुका था ; अतः उसने सहर्ष वह आमंत्रण स्वीकार किया। भद्रा ने घर आकर राजा के स्वागत में तैयारियां की। राजा भी राजकीय साज-सज्जा से उसके घर आया। शालिभद्र तब तक अपने महलों में ही था। हर्म्य की चतुर्थ मंजिल में राजा को बैठाया गया। राजा वहां की दिव्य ऋद्धि को देखकर विस्मित हो रहा था। सोचता था, इस द्रव्य ऋद्धि को भोगने वाला शालिभद्र कैसा होगा? भद्रा ने सातवीं मंजिल पर जा शालिभद्र को कहा-"बेटा ! श्रेणिक अपने घर आया है, नीचे चलो और उसे नमस्कार करो।" "माँ, मैं नीचे क्यों चलूं, घर की मालकिन तुम वहाँ बैठी हो, जो भी मूल्य हो दे दो और श्रेणिक को खरीद लो!" "बेटा तुम नहीं समझते । वह खरीदने की वस्तु नहीं है । श्रेणिक हमारा राजा है, स्वामी है, हमारे पर अनुग्रह कर यहाँ आया है। तुम नीचे चलो और उसे नमस्कार करो।" शालिभद्र के मन पर एक चोट-सी लगी। मैं स्वयं अपना स्वामी नहीं हूँ, मेरे पर भी कोई स्वामी है, यह क्या ? मैं तो अब वही रास्ता खोजूंगा, जिसमें अपना स्वामी मैं स्वयं ही रहूँ। माता के निर्देशन से शालिभद्र श्रेणिक के पास आया और नमस्कार किया। श्रेणिक उसके सुडोल शरीर, गौर वर्ण और असीम सौकुमार्य को देखकर अवाक रहा। निकट होते ही श्रेणिक ने उसे गोद में भर लिया, पर, शालिभद्र इतना सुकोमल था कि राजा के शरीर की उष्मा से ही उसके सारे शरीर से स्वेद बहने लगा। उसे आकुलता-सी प्रतीत होने लगी। राजा समझ गया। उसने उसे अपने सम्मुख उचित आसन पर बैठाया और उससे बातें की। राजा आनन्दित, पुलकित अपने राज-प्रासाद गया। शालिभद्र भी वहाँ से उठकर सप्तम भौम गया। उसके मन में यही उथल-पुथल थी, क्या मैं ही अपना स्वामी नहीं हूँ ? __नगर के ईशान कोणवर्ती उद्यान में धर्मघोष मुनि आए। समूह-के-समूह नर-नारी उसी दिशा में चल पड़े। शालिभद्र ने सप्तम भौम से उस जन-समूह को देखा। कर्मकरों से जानकारी ली। उसके मन में स्व-स्वामित्व का प्रश्न घुट ही रहा था। समाधान की उत्सुकता में वह भी निरुपम साज-सज्जा से उसी दिशा में चल पड़ा। धर्मघोष मुनि की देशना से उसने भोगों की नश्वरता समझी। साधु-चर्या का स्व-स्वामित्व समझा। दीक्षित होने को कृतसंकल्प हुआ। शालिभद्र घर आया। अपने मन का संकल्प माता से कहा। माता को वज्राघातसा लगा उसने पुत्र के मन को मोड़ने का हर प्रयत्न किया, पर, सब व्यर्थ । अन्त में बात यह ठहरी कि आज ही दीक्षा न लेकर प्रतिदिन एक-एक पत्नी का परित्याग किया जाए। पत्नियां भी पति के इस संकल्प को सुनकर आकुल-व्याकुल हुईं। पति को मोड़ने का प्रयत्न किया, पर, शालिभद्र का वह पत्नी परित्याग अनुष्ठान चलता ही रहा। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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